रूपकुंड ट्रेक (अंतिम भाग) :- भागुवासा से जुनारगली और वापसी
कल रात को सोने से पहले ही सबने तय कर लिया था कि सुबह जितनी जल्दी होगा रूपकुण्ड के लिए निकल पड़ेंगे। सिर्फ हम लोग ही कल से भगुवासा में थे। ढाबे वाले ने भी सुबह जल्दी जाने की ही सलाह दी थी, अक्सर जो भी भगुवासा रुकता है, वो सुबह जल्दी जाकर दिन के भोजन के लिए वापिस भगुवासा आ जाता है, क्योंकि इससे आगे कुछ भी उपलब्धता नहीं है। पांच बजे सभी उठ गए, कल शाम का हट के अन्दर टेण्ट लगाकर सोने का आईडिया अच्छी तरह से काम कर गया, सबसे ठण्डी जगह पर रात बिताने के बावजूद, किसी भी सदस्य ने ठण्ड लगने की शिकायत नहीं की, सभी पछता रहे थे कि बेदिनी में ऐसा क्यों नहीं किया। जल्दी से तैयार हो गए, तैयार क्या होना था, सिर्फ जूते ही तो पहनने थे, पूरे कपड़ों में ही स्लीपिंग बैग में सोये थे। नाश्ता करने का मन तो नहीं था, फिर भी जबरदस्ती खाया, सूप और नूडल्स थे, बस ठूंस ही लिए। टोर्च जलाकर अँधेरे में ही रूपकुण्ड के लिए निकल पड़े।
भागुवासा से रूपकुण्ड की दूरी लगभग पांच किलोमीटर है, ठण्ड का प्रकोप अपने चरम पर था, ऊपर से हवा में ऑक्सीज़न की कमी, चार से पांच कदम चलने पर ही सांस फूल जा रही थी, धड़कनों पर काबू पाने के लिए बार बार रुकना पड रहा था, ऐसे में कम दूरी तय करने में समय ज्यादा लगना ही था। ठण्ड अधिक हो तो बेहतर होता है चलते रहो, शरीर गर्म हो जाता है और ठण्ड कम लगती है।
थोड़ी दूर तक सीधा चलने के बाद हल्की चढ़ाई शुरू हो जाती है, प्यास लगी तो पानी की बोतल निकाली, देखा पानी बर्फ बन गया है, पूरी बोतल ही जम गयी, अपनी गलती का अहसास हुआ कि इतने कम तापमान में बोतल को कपडे से लपेटकर बैग के अन्दर क्यों नहीं रखा, अब तो देर हो चुकी थी, बर्फ ही चूसनी पड़ी। इसका मतलब इस समय भी तापमान शून्य से नीचे ही है। पिछले वर्ष हुयी नंदा देवी राज जात यात्रा की वजह से रास्ते काफी अच्छे बने हैं, अन्यथा जो भी यात्रा वृतान्त मैंने पढ़े थे किसी में भी रास्ते को इतना अच्छा नहीं बताया था। करीब दो किलोमीटर चलने के बाद चढ़ाई शुरू हो जाती है, हल्का सा उजाला हो चुका था, धीरे धीरे गंतव्य की और बढे जा रहे थे।
सुमित, पंकज और धनेश भाई सबसे आगे चल रहे थे। धनेश भाई उम्र में सबसे बड़े थे, फिर भी उनकी शारीरिक क्षमता गजब की है। बर्फीली हवा का कहर लगातार जारी रहता है। कुछ आगे बढ़ने के बाद असली और खतरनाक चढ़ाई शुरू हो जाती है, जो कि रूपकुंड के आखिरी आधा किलोमीटर में तो और भी भयंकर रूप धारण कर लेती है। दो से तीन कदम खिसको फिर रुक जाओ, बस कुछ इसी तरह चढ़ते जा रहे थे। डोभाल और विनीत की हालत तो पस्त ही हो चुकी थी। डोभाल बिना चश्मों के चल रहा था, बर्फीली हवा सीधे आँखों से टकरा रही थी, जिससे उसकी आँखों से आंसू लगातार बहे जा रहे थे।
रास्ता भी आखिरी में बहुत ख़राब है, और खतरनाक भी। सुमित पूरे ग्रुप में सबसे आगे चल रहा था। नीचे से ऊपर मोड़ तक जहाँ तक रास्ता दिखता, सबको उम्मीद होती कि वहाँ से कुण्ड दिखता ही होगा, लेकिन जब सुमित उससे भी आगे बढ़ जाता तो सभी निराश हो जाते। आपस में ज्यादा बातें करने का भी मन नहीं कर रहा था, ऐसा लग रहा था कि कुछ बोलेंगे तो उससे भी सांस फूलने लगेगी, चुपचाप बढे जाओ। आखिरी आधे किलोमीटर ने तो तोड़ कर ही रख दिया। घिसट घिसट के जब ऊपर पहुंचा, तो धनेश भाई ने एक बड़ी सी चट्टान की और इशारा कर दिया।
बस जान में जान आ गयी, शुक्र है, आखिर पहुँच ही गए, वो भी समुद्र तल से ठीक पांच किलोमीटर ऊपर। जिस रूपकुण्ड के बारे में सोच सोचकर ही रोमांचित हो जाता था, आखिर उस तक पहुँच ही गया। जीत का सा अनुभव् हो रहा था। बड़े से चट्टानी पहाड़ के नीचे छोटा सा कुण्ड है, अभी थोड़ी बहुत बर्फ थी, और तकरीबन कुण्ड सूखा ही पड़ा था। बैग को साथ में बने छोटे से मंदिर के चबूतरे पर रखकर कुण्ड में उतर गया, इसी के लिए तो यहाँ इस समय आया था, नहीं तो कुण्ड साल के दस महीने तो बर्फ से ही दबा रहता है।
उस समय के लिए कुण्ड से कुछ ऊपर एक बड़े पत्थर पर एक खोपड़ी और कुछ कंकाल रखे हैं, जिससे यहाँ आने वाले निराश ना हों, जिन नर कंकालों के लिए रूपकुण्ड विश्व प्रसिद्द है, कम से कम कुछ तो देखने को मिले। अक्सर इंटरनेट पर जो भी फ़ोटो देखने को मिलेगी वो इसी पत्थर की है। पानी नामात्र का होने के कारण कुण्ड का तल भी साफ़ नजर आ रहा था। पूरे कुण्ड में इंसानी हड्डियां बिखरी पड़ी हैं, सत्य ही पढ़ा सुना था। सब अपनी आँखों से देख रहा था। सदियों पुराने नरकंकालों का अभी भी ऐसे बिखरे पड़े होना भी अजीब सा ही है। प्रमाणिक कुछ भी नहीं है कि ये कौन लोग थे। इतने सारे कंकाल एक ही जगह में क्यों पड़े हुए हैं ? काफी शोध हो चुके, कई अलग अलग थ्योरी हैं, लेकिन प्रमाणिकता से कुछ नहीं कहा जा सकता।
एक अजीब सा सन्नाटा कुण्ड के अन्दर महसूस हुआ, जबकि हम आठ लोग वहां मौजूद थे। जल्दी जल्दी फ़ोटो खींची, ठण्ड से अंगुलिया भी सुन्न हो रही थी, कुण्ड से बाहर निकल आया और बाकी सबके साथ धूप में बैठकर आराम करने लग गया। साथ में ही मंदिर था। भगुवासा से ढाबे वाले ने एक नारियल मंदिर में चढ़ाने को दिया था अब चढ़ाये कौन ? सब तो टॉयलेट पेपर वाले थे सिर्फ लम्बू था जो दो दिन से फ्रेश होने ही नहीं गया था। उसी ने चढ़ाया, अब थोडा आराम करने के बाद जुनारगली की तरफ सर उठा कर देखा, ऐसा लगा किसी ने वहां घण्टी सी बजायी है, ये सिर्फ मेरे को ही नहीं लगा, हम तीन चार एक साथ बोल पड़े, ऊपर कोई है। मैंने सुमित से पुछा, चलेगा ऊपर ? वो तुरन्त तैयार हो गया, फिर धीरे-धीरे सब तैयार हो गए।
डोभाल की हालात पस्त थी, उस पर मैंने एक रामबाण मारा, निशाना सटीक बैठा, तो घायल आदमी भी उठकर चुपचाप बिना कुछ कहे ऊपर को चढ़ने लगा। हां रूपकुण्ड में किसी ट्रैकर का चश्मा छूट गया था, वो हमको मिल गया। तुरंत डोभाल को पकड़ा दिया और कबूल भी कर लिया कि तेरा सौ रुपये वाला चश्मा तोडा था ना, उसके बदले ये ले, चार हज़ार वाला चश्मा दे रहा हूँ। जुनारगली के लिए कुण्ड के ही बराबर से सीधे ऊपर की ओर रास्ता जाता है, आधे किलोमीटर की सीधी चढाई है। बस एक जोर लगाया और चढ़ ही गए।
ऊपर जैसे ही जुनारगली पहुंचे सामने का नजारा देख कर दिल खुश हो गया। जितनी थकान थी सामने का नजारा देख कर गायब ही हो गयी, शरीर के अन्दर एक नयी ऊर्जा खुद से ही आ गयी। जिस त्रिशूल पर्वत को पिछले चार दिन से दूर से देख देख कर खुश हो रहे थे, आज उसके ठीक सामने खड़े थे। ऐसा लग रहा था कि मैं त्रिशूल पर्वत के ठीक सामने खड़ा होकर उसकी आँखों में आँखे डाल कर बात कर रहा हूँ।
वाकई अब मैं भी सबसे यही कहूँगा, कि इतनी कठिनाई से रूपकुण्ड तक जा ही रहे हो तो जुनारगली अवश्य जाना। जाट देवता-संदीप भाई, आप शायद नहीं उकसाते तो हो भी सकता था कि मैं नहीं भी जाता। खूब सारी फ़ोटो खींची गयी, फोटो सेशन के बाद अब वापिस चलने की तैयारी शूरू की। भगुवासा करीब बारह बजे तक आकर खाना खाया और आगे बढ़ चले। आज हमको वापसी में बेदिनी रुकना था।
भगुवासा से कालू विनायक जैसे ही पहुंचे हल्की हल्की बर्फ भी गिरने लगी, और कालू विनायक की वही बर्फीली हवा। जल्दी जल्दी नीचे पातर नाचणी उतरे, ढाबे में चाय पी, यहाँ कुछ ट्रेकर मिले जिनको कल ऊपर जाना था। उनको जानकारी और हिदायत दी कि अपनी पानी की बोतल को कपडे में लपेट कर बैग के अन्दर रखना। क्योंकि तापमान शून्य से कम ही मिलेगा, हमारी बोतल बाहर होने के कारण बर्फ बन गयी थी, प्यास लगने पर बर्फ ही चूसनी पड़ी।
पातर नाचणी से भी मस्ती में निकले, करीब चार बजे जब घोरा लौटाणी पहुंचे तो सबमें खुसर फुसर होने लगी कि आज ही वाण पहुँचते हैं। मेरे से पुछा तो मैनें साफ़ मना कर दिया। मेरे दो कारण थे, एक तो आली बुग्याल नहीं देखा था, वो देखना था, दूसरा आज सुबह से अभी तक लगभग 28 किलोमीटर चल चुके थे। बेदिनी से कितनी भी तेज चलेंगे हमको जंगल में अँधेरा होना ही था, दिन में जंगल जितने खूबसूरत दिखते हैं, रात को उतने ही खतरनाक भी होते हैं। अगर कोई दुर्घटना हो गयी, तो कई मील आगे-पीछे कोई अस्पताल भी नहीं है। ऐसे में जोखिम उठाना बेवकूफी ही है। और फिर अँधेरे में ठोकर लगकर गिरने का खतरा अलग से। असल में ये सारा खौफ रात को फिर से स्लीपिंग बैग के अन्दर सोने और ठण्ड का था। जिसके लिये सभी बुरी तरह थके होने के बाद भी, और बारह किलोमीटर अँधेरे में चलने को तैयार थे। पांच बजे जब बेदिनी पहुंचे तो मालूम पड़ा कि सुमित, पंकज और विनीत वाण के लिए निकल भी चुके हैं।
अब बाकी लोगों की खुसर-फुसर फिर से शूरू हो गयी। आखिर मेरे को भी सबकी बात मानकर हाँ बोलना पड़ा। हमारे घोड़े वाले ने भी समझाया कि कल जल्दी निकल पड़ेंगे लेकिन कोई नहीं माना। हारकर उसने भी घोडा वापिस तैयार कर दिया, और हिदायत दी कि जंगल में सब साथ चलना। अभी अँधेरा होने में आधा घण्टा बाकी था, सबने नीचे की तरफ दौड़ लगा दी। जब तक उजाला है जितनी दूरी तय कर पाओ कर लेते हैं। धड़ाधड़ शार्ट कट मारने शुरू कर दिए, आधे घण्टे में चार किलोमीटर नीचे गैरोली पाताल भी पहुँच गए। अँधेरा गैरोली पाताल से कुछ पहले हो चला था।
ऊपर से टोर्च हाथों में लेकर नीचे की और दौड़ते हुए जब गैरोली पाताल के ढाबे वाले ने देखा तो उसने भी हमको समझाया, कि इस समय जंगल में मत जाओ। उसको बताया कि हमारा घोड़े वाला साथ में है, तो घोड़े वाले को ही कोसने लगा। कि ये कोई वक़्त होता है नीचे उतरने का ? उसको सभी ने बताया कि वो तो मना ही कर रहे थे, हमने ही जिद की। और फिर हम सभी पहाड़ी ही हैं। थोडा बहुत आदत सभी को है, तब जाकर निश्चिन्त हुआ। इस दौड़ लगाने के चक्कर में मेरा पाँव पता नहीं कब मुड़ा, और मेरे घुटनो में लगी पुरानी चोट उभर आयी। गैरोली पाताल से नीलगंगा तक लगातार उतराई है, और भयंकर जंगल भी। सभी आवाज़ें निकालते हुए और टॉर्च की लाइट इधर-उधर मारते हुए उतरते जा रहे थे।
नीलगंगा तक सभी आराम से उतर गए। जैसे ही नीलगंगा से ऊपर रणकधार की चढ़ाई शूरू की, मेरे पांव में भयंकर दर्द शूरू हो गया। एक-एक कदम बढ़ाना भारी पड़ने लगा। मैं तुरंत समझ गया कि मेरी घुटने की चोट वापिस उभर गयी। मेरा बैग यशवंत ने ले लिया और मैं घिसट-घिसट के चलने लगा। अभी भी तीन किलोमीटर और चलना था। दर्द इतना अधिक था कि बस आंसू ही नहीं निकले, बाकी कैसे मैंने सहा मैं ही जानता हूँ। घिसट-घिसट के करीब नौ बजे जब वाण पहुंचे तो जो दर्द मैंने पिछले तीन किलोमीटर आने में सहा था, उसकी वजह से बहुत तेज बुखार आ गया। सीधे होटल में बिस्तर के अंदर घुसा, और सबको कहा कि कोई डिस्टर्ब मत करो जो होगा सुबह देखेंगे ।
सुबह आठ बजे उठे, कल हम सभी 42 किलोमीटर चले थे, जो कि बहुत ज्यादा है। सभी को मेरी चिंता हो रही थी। पांव देखा तो काफी सूज गया था, लेकिन दर्द नहीं था। अब जो होगा दिल्ली में ही दिखाऊंगा, ये सोचकर सुबह दस बजे वाण से निकल पड़े। आज जितना भी आगे तक पहुँच लेंगे कल दिल्ली जाने के लिए आसानी होगी। हमको देहरादून होकर जाना था, यशवंत ने अपनी फैमिली को वहां छोड़ा हुआ था। जब शाम को छह बजे श्रीनगर पहुंचे तो सोचा आज ही देहरादून पहुँच सकते हैं। कोशिश की तो रात को साढ़े दस बजे देहरादून में अपने दोस्त भरत के घर पर थे।
अगले दिन पोंटा साहिब होते हुए दिल्ली वापसी........
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रूपकुण्ड के नर कंकाल |
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रूपकुण्ड |
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कुण्ड के तल में बिखरे पड़े नर कंकाल |
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धूप में आराम करते हुए |
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ये फ़ोटो तो बनती है |
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जगह-जगह बिखरे नर कंकाल |
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जुनारगली की ओर |
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जुनारगली |
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आज मैं ऊपर...आसमां नीचे |
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पूरा ग्रुप जुनारगली फतह |
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चांडाल चौकड़ी |
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यशवंत और लम्बू |
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रूपकुण्ड |
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रूपकुण्ड |
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रूपकुण्ड में मंदिर |
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हालत पस्त |
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पानी लेकिन किसी काम का नहीं |
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पानी की तलाश में |
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पानी का जमा हुआ छोटा झरना |
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पानी का जमा हुआ छोटा झरना |
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रूपकुंड की और आता रास्ता |
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बादलों के साथ चलने का अहसास |
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बादलों के बीच से गुजरते हुए |
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बादलों के बीच से रास्ता |
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बादलों से ऊपर हम |
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जुनारगली से दिखते नंदा घुंटी ओर त्रिशूल पर्वत |
इस यात्रा के सभी वृतान्तो के लिंक निम्न हैं:-
वह बिनू भाई जी छा गए . एक दिन में 42 किलोमीटर बहुत बड़ी बात है .इतना तो मैं एक महीने में भी नहीं चलता . तस्वीरें भी एक से बढकर एक हैं .
ReplyDeleteधन्यवाद नरेश जी।
Deleteबीनू बहुत ही साहस भरी ट्रैकिंग रही, लेकिन बहुत जल्दबाजी की आपने उतरने में जिसका खामियाजा उठाना पडा बीमार होकर,
ReplyDeleteफोटो बेहतरीन थे!
जी सचिन भाई, ट्रैक पर जल्दीबाजी दिखाना घातक होता है। धन्यवाद।
Deleteबयालीस किलोमीटर वो भी पैर दर्द के साथ गजब का साहस है। आप इसमें टेक्स्ट का कलर चेंज कर लो आँखों में लग रहा है।
ReplyDeleteधन्यवाद हर्षिता।
DeleteRoopkund meri wish list mein hai.....dekho kab wish puri hogi.
ReplyDeleteNext post mein hame kahan le ke ja rahe ho ..........
बहुत खूबसूरत ट्रैक है महेश जी।
Deleteबीनू भाई , छा गये . 42 किमी एक दिन में...
ReplyDeleteधन्यवाद पाण्डेय जी।
Deleteबहुत अच्छे बीनू भाई ,पर ये निर्णय आपका थोडा गलत लगा साथ आपकी हिम्मत की भी दाद देनी होगी की इतनी परेशानी में भी आप चल पाए |42 किमी.चलना भी एक रिकॉर्ड है |
ReplyDeleteजी रूपेश भाई। धन्यवाद।
Deleteबीनू जी..... बहुत ही शानदार और रोमांचक पोस्ट पोस्ट | फोटो भी बहुत अच्छे ...
ReplyDeleteरूपकुंड के बारे में जानने जिज्ञासा मेरी बहुत पहले से थी.... आपके लेख से काफी कुछ जिज्ञासा खत्म हूँ .
वैसे जंगल में रात को ट्रेकिंग करना हमेशा खतरनाक होता है ..... आप सुरक्षित आ गये .. धन्य हो...
बाद में आपकी घुटने की चोट का क्या हुआ...?
धन्यवाद
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धन्यवाद रितेश भाई। घुटना दो बार तुड़वा चुका हूँ। डॉक्टर ने सख्त हिदायत दी थी कि अगले 3 महीने तक कोई ट्रैकिंग नहीं। लेकिन आप हम जैसे लोग शांत कहाँ बैठे रह सकते हैं। :)
ReplyDeleteबीनू भाई आपके ट्रैकिंग के किस्से सच में मजेदार और बहुत रोमांचक होते हैं ! ये पहले कह चुका हूँ ! कभी कोई जानकार जाए तो उसे कलुआ विनायक का बैनर नया लेकर जाने के लिए कहना , फट गया है ! एक ही दिन में 42 किलोमीटर ! गज़ब !शानदार वृतांत
ReplyDeleteधन्यवाद योगी भाई।
Deleteबीनू जी बहुत रोचक लेख और सुंदर तस्वीरें । आभार
ReplyDeleteआपका भी आभार नितिन जी।
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