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हर की दून से साँकरी
लगभग दो बजे हर की दून से निकल पड़े। शाम को छह बजे अँधेरा हो जायेगा। चार घण्टे में चौदह किलोमीटर चलना है। रूपकुण्ड ट्रैक पर अँधेरे में की गयी भागमभाग में पाँव तुड़वा चुका था, यहाँ दुबारा नहीं तुड़वाना चाहता था। फिर भी जब तक उजाला है, जितनी तेज चल सकें उतना अच्छा। आधे घण्टे में उस जगह पहुँच गए जहाँ सीमा से आने वाला रास्ता, ओसला वाले रास्ते से मिलता है। भागमभाग के चक्कर में ओसला वाला रास्ता पता ही नहीं पड़ा कि कब पीछे छूट गया। वो तो सुपिन पर लकड़ी का पुल देखा फिर समझ आया कि गलत आ गए हैं।
हर की दून से साँकरी
लगभग दो बजे हर की दून से निकल पड़े। शाम को छह बजे अँधेरा हो जायेगा। चार घण्टे में चौदह किलोमीटर चलना है। रूपकुण्ड ट्रैक पर अँधेरे में की गयी भागमभाग में पाँव तुड़वा चुका था, यहाँ दुबारा नहीं तुड़वाना चाहता था। फिर भी जब तक उजाला है, जितनी तेज चल सकें उतना अच्छा। आधे घण्टे में उस जगह पहुँच गए जहाँ सीमा से आने वाला रास्ता, ओसला वाले रास्ते से मिलता है। भागमभाग के चक्कर में ओसला वाला रास्ता पता ही नहीं पड़ा कि कब पीछे छूट गया। वो तो सुपिन पर लकड़ी का पुल देखा फिर समझ आया कि गलत आ गए हैं।
वापसी जाना पड़ा। करीब तीन सौ मीटर पीछे जाकर सही रास्ता मिल गया। यहाँ से चढ़ाई शुरू हो जाती है। हर की दून ट्रैक की यही खासियत है। कई जगह वापसी उतरते हुए भी चढ़ना पड़ता है। आधा किलोमीटर चढ़ने के बाद एक पैकेट बिस्कुट का खाया गया। यहाँ से हल्की सी उतराई के बाद कलकत्ती धार तक लगातार चढ़ाई है। एक बार कलकत्ती धार पहुँच जाएँ, फिर रास्ता भी बढ़िया और आसान ही है।
थकान भी होने लगी थी, सुबह सात बजे से चलते ही जा रहे थे। असल में जब हम दिल्ली से चले थे, तो हमारा कार्यक्रम एक रात हर की दून में बिताने का ही था। साँकरी पहुंचे तो मालूम पड़ा कि हर की दून में बर्फ नहीं है। इसलिए अधिकतर ट्रैकर बजाय हर की दून के केदारकांठा जा रहे हैं। केदारकांठा ट्रैक भी साँकरी से ही शुरू होता है। छोठा सा ट्रैक है, हालाँकि इस वर्ष कम बर्फ़बारी के कारण ट्रैकर बजाय हर की दून के केदारकांठा का रुख ज्यादा करते हुए मिले। अब इस क्षेत्र में भविष्य में ट्रैकिंग के लिए जौंधार और बडासु पास को लाँघ कर हिमाचल के छितकुल निकलने का लक्ष्य रखा है।
इसी के चलते हमने भी सोचा कि क्यों ना एक दिन हर की दून में बचा कर साथ ही साथ केदारकांठा को भी देख लिया जाए। यही कारण था कि आज के दिन २८ किलोमीटर चलकर वापिस ओसला पहुँचने का लक्ष्य रखा था। जगह-जगह जमे हुए झरनों से रिसते पानी को बोतल में भर कर पीना पड़ रहा था। आराम से चलकर कलकत्ती धार पहुँच गए। सूर्य देव भी अस्त होने लगे थे।
मनु भाई का रुक कर आराम करने का मन था, लेकिन मैं चलता रहा। दिन के उजाले में अधिक से अधिक दूरी तय करना चाहता था। हारकर मनु भाई भी पीछे-पीछे चल पड़े। इसी बीच वो सूर्यास्त के साथ मेरी पीछे से फ़ोटो भी खींचते चल रहे थे। बाद में जब उन्होंने ये फ़ोटो दिखायी तो बड़ी खूबसूरत आयी थी। कलकत्ती धार से हालाँकि रास्ता आसान ही है, लेकिन इतना चल चुके थे कि थकान होना स्वाभाविक था। ओसला से दो किलोमीटर पहले अँधेरा हो चुका था। टोर्च जलाकर आगे बढ़ रहे थे तो कुछ आगे दो बच्चे एक पत्थर पर बैठे मिले।
जैसे ही उन्होंने दूर से टोर्च की रौशनी के साथ हमको देखा तो वहीँ रुक गये। असल में सुबह बलबीर जी को हम बोलकर आये थे कि अगर अँधेरा होने तक हम वापिस ना आएं तो हमारी ढून्ढ में कुछ आगे तक आ जाना। बलबीर जी ने अपने सुपुत्र को हमारी ही खोज में भेजा हुआ था। इनमें से एक बालक ने मेरा बैग ले लिया और आराम से चलते हुए हम ओसला पहुँच गए। वापिस पहुँचते ही फिर से वही पाँव धुलने के लिये गर्म पानी और चाय तैयार मिल गयी। आधी थकान तो इसी से दूर हो गयी। कुछ ही देर बाद गर्मागर्म भोजन भी आ गया। सुबह जल्दी वापसी निकलना था इसलिए आराम करने लगे।
सुबह छह बजे आँख खुली, फ्रेश होकर वापसी की तैयारी करने लगे। बलबीर जी आज हमारे जगने से पहले ही कहीं काम से जा चुके थे। बलबीर जी के परिवार से घुल-मिल भी गए थे। उनकी धर्मपत्नी, बिटिया और छोठा बेटा भी हमारे कमरे में आकर बातें करने लगे। हर की दून की फ़ोटो भी दिखयी उनको। दो दिन रुकने का भुगतान करने लगे तो बलबीर जी की धर्मपत्नी बोल पड़ी "रहने दीजिये, आपको दूर जाना है, खर्चा कम पड़ जाएगा"।
पहाड़ का यही सेवा भाव देख कर अभिभूत हो जाता हूँ। उनको समझाया कि नहीं, हमारे पास पूरा खर्चा है, आप रखिये। पूरे परिवार से विदा लेकर सुबह सात बजे तालुका के लिये निकल पड़े। बलबीर जी की बिटिया ने हमारे निकलते हुए हर की दून की ऊपरी पहाड़ियों की ओर इशारा करके बताया कि जो वहां काले बादल दिख रहे हैं, इसका मतलब हर की दून में बर्फ़बारी हो रही है। आधे से एक घण्टे में ओसला में भी बर्फ गिरेगी, इसलिए आराम से जाना।
ओसला से सुपिन नदी तक आधे घण्टे में उतर आये। जैसे-जैसे नीचे उतरते जा रहे थे उन काले बादलों ने ओसला और आस-पास के क्षेत्र को अपने आगोश में भर लिया। हरे पहाड़ धीरे-धीरे सफ़ेद रूप में नजर आने लग गए। तेजी से चलते हुये गंगाड में चाय की दुकान तक पहुँच गए। इतने में हल्की-हल्की बर्फ यहाँ भी गिरनी शुरू हो चुकी थी। चूँकि ओसला से बिना नाश्ता किये ही चल पड़े थे, गंगाड में मैगी बनवा ली।
मनु भाई ने दुकान वाले को कहा कि यार चटपटी मैगी बनाना। शायद उनको पहाड़ के चटपटे का अर्थ मालूम नहीं था। मैगी जब सामने आयी तो चम्मच से मिर्च ही हटाते-हटाते खायी। मुझे तो मजा आया, शरीर में एक झटके में गर्मी आ गयी। आप लोगों को भी कभी ठण्ड लगे तो एक साबुत मिर्च खा के अनुभव् करना, ठण्ड एक झटके में गायब हो जाती है।
गंगाड से चले ही थे कि हल्की बर्फबारी और बारिश शुरू हो गयी थी। मैंने रेन कोट पहन लिया, और मनु भाई ने पोंछो। ये रेन कोट मैंने पिछले ही वर्ष नया लिया था २४००/= रुपये का, और जानी मानी कंपनी का। वाटरप्रूफ का टैग भी लगा था। उम्मीद थी पानी से बचा लेगा। लेकिन मेरी उम्मीद दस मिनट में ही धराशायी हो गयी जब इसके अन्दर पानी घुसने लगा। जब से ये रेन कोट लिया था किसी भी ट्रैक पर बारिश का सामना नहीं करना पड़ा था। पहली बार और हल्की सी ही बारिश में २४००/= रुपये पानी में धुल गए।
गंगाड से चले ही थे कि हल्की बर्फबारी और बारिश शुरू हो गयी थी। मैंने रेन कोट पहन लिया, और मनु भाई ने पोंछो। ये रेन कोट मैंने पिछले ही वर्ष नया लिया था २४००/= रुपये का, और जानी मानी कंपनी का। वाटरप्रूफ का टैग भी लगा था। उम्मीद थी पानी से बचा लेगा। लेकिन मेरी उम्मीद दस मिनट में ही धराशायी हो गयी जब इसके अन्दर पानी घुसने लगा। जब से ये रेन कोट लिया था किसी भी ट्रैक पर बारिश का सामना नहीं करना पड़ा था। पहली बार और हल्की सी ही बारिश में २४००/= रुपये पानी में धुल गए।
अब जो भी होगा देखा जाएगा, आगे बढ़ते रहे। रास्ते में सिर्फ एक जगह पांच मिनट के लिये आराम किया बाकी चलते ही रहे। करीब दो बजे तालुका पहुँच कर ही दम लिया। तालुका पहुँचते ही ढाबे में शरण ली, तुरन्त चाय का आर्डर दे दिया। मनु भाई के हाथ ठण्ड के कारण सुन्न हो चले थे। अंगुलियां सीधी भी नहीं कर पा रहे थे। जब आग सेकने से भी राहत नहीं मिली तो गर्मागर्म पानी के जग में हाथ डालकर उनको अपनी अंगुलियां सामान्य करनी पड़ीं।
ढाबे में ही खाने के लिए पुछा तो राजमा, चावल, सब्जी बनी थी। भूख भी जबरदस्त लग ही रही थी, खाना मँगवा लिया। जबरदस्त स्वाद था। ऑर्गेनिक राजमा का स्वाद होता ही इतना बढ़िया है। यहीं ढाबे वाले से पुछा कि यहाँ की स्थानीय राजमा या कोई दाल किसी दुकान पर मिल जायेगी क्या ? उसने सामने वाली ही दुकान की ओर इशारा कर दिया। दुकान वाले के पास जाकर पुछा तो स्थानीय ऑर्गेनिक राजमा ७०/= रुपये प्रति किलो के हिसाब से मिल रही थी। १० किलो राजमा घर के लिए रखवा ली।
हमने ये ट्रैक तीन दिन में, केदारकांठा भी जाने के लालच में ही समाप्त किया था। जब मैं दिल्ली से चला था तो सौ प्रतिशत फिट नहीं था। सर्दी, जुखाम की वजह से गले में दर्द था। फिर पूरे ट्रैक पर बर्फ का ही पानी पीना पड़ा। जिससे छाती में बलगम काफी हद तक जम गया। मैंने मनु भाई को जब ये बात बतायी तो हमने आगे और बर्फ में जाने के कार्यक्रम पर पूर्ण विराम लगा दिया। क्योंकि अभी भी बर्फ़बारी हो ही रही थी, मौसम पता नहीं कब ठीक हो। ऐसी स्तिथि में बारिश और बर्फ में फिर से जाना बेवकूफी ही होगी।
मनु भाई ने पुछा अब केदारकांठा नहीं चलना तो कहाँ चलें ? मैंने तुरंत कहा हनोल। एक बार यमुनोत्री का भी ख्याल आया। लेकिन हनोल ही फाइनल हो गया। हनोल मोरी से मात्र बीस किलोमीटर की दूरी पर, चकराता-देहरादून मार्ग पर स्तिथ है। महासू देवता और यहाँ पर मिले पौराणिक तत्वों की वजह से प्रसिद्ध है। महासू देवता की इस क्षेत्र में बहुत मान्यता है। तालुका में हमको ले जाने के लिए जीप पहले से ही खड़ी थी। जिस जीप में यहाँ तक आये थे, उसी ने दूसरे जीप वाले को भेजा हुआ था। क्योंकि तभी हम बता कर आये थे कि हम तीसरे दिन तालुका वापिस आ जाएंगे।
तालुका से निकलकर साँकरी पहुंचे, आस पास की सभी ऊँची चोटियां बर्फ से लद चुकी थी, और बहुत ही खूबसूरत लग रही थी। साँकरी में ये चिंता थी कि गाडी स्टार्ट होगी या नहीं, क्योंकि इतने कम तापमान में पिछले चार दिन से कहीं बैटरी डाउन ना हो गयी हो। लेकिन गाडी ने हमको निराश नहीं किया और एक ही झटके में चलने के लिए तैयार हो गयी। गाडी में ही बारिश से भीगे कपडों का त्याग भी कर दिया।
यहीं साँकरी में डॉक्टर का पता किया तो, एक क्लीनिक मिल गया। डॉक्टर साहब अकेले रहते हैं, दिन का भोजन बनाने कमरे पर गए हुए थे। उनका कमरा पूछते-पूछते ढून्ढ निकाला। कमरे पर जाकर बोला कि मरीज आया है, क्लीनिक पर चलो। दवाई ली, और आगे बढ़ चले। बारिश के बाद पहाड़ों की खूबसूरती में जबरदस्त निखार आ जाता है। वही हाल इस घाटी का भी था। नीचे से बादलों के झुण्ड ऊपर को आते देखकर, हमको स्वर्ग में होने का अहसास दिला रहे थे।
जमा हुआ झरना |
जबरजस्त पोस्ट ! पानी और बर्फ ! दूर से ही अच्छे लगते है । मिर्च का उदाहरण बढ़िया लगा।
ReplyDeleteधन्यवाद बुआ।
Deleteपहाडी लोगो का प्यार देखने को मिला, पहले वो बच्चे जो जंगल के रास्ते आपका इंतजार कर रहे थे फिर उनका यह कहना की पैसे रहने दो, आपको दूर जाना है।
ReplyDeleteबीनू भाई यह पोस्ट बहुत अच्छी लगी,पर फोटो ओर लगाने चाहिए थे।
जी सचिन भाई।
DeleteHad ki doon, beautiful,
ReplyDeleteजी, निश्चित रूप से।
Delete10 kilo rajma , ghar ana pagega.
ReplyDeleteस्वागत है महेश जी।
Deleteएक बेहतरीन यात्रा का सुखद समापन ! ये अलग बात है कि आप केदारकांठा नहीं जा पाये लेकिन इसी बहने हमने कम से कम हनोल तो देख लिया आपके माध्यम से ! बीनू भाई , हर की दून से दूसरी साइड में उतरकर जौंधार ग्लेशियर से उतरकर रास्ता संभव है ? फोटो एक से एक बेहतरीन
ReplyDeleteजी योगी भाई, बिल्कुल संभव है। भविष्य में जौंधार ग्लेशियर पार करके दुसरी ओर हिमाचल के छितकुल जरूर जाऊंगा।
Deleteबाकी सब ठीक है पर 10 किलो राजमा का क्या किया? सुपर मार्केट मे तो नही बेचे??
ReplyDeleteनहीं खंकरियाल जी, धर्मपत्नी इसी शर्त पर घर से निकलने की इज़ाज़त देतीं हैं कि कुछ ना कुछ पहाड़ी चीज लेकर आओगे।
Deleteबेहतरीन यात्रा जबरजस्त पोस्ट
ReplyDeleteधन्यवाद संजय जी।
Deleteबढ़िया जानकारी ,आपके मंगलमय जीवन की कामना सहित।
ReplyDeleteधन्यवाद देवेन्द्र जी।
Deletebahut badiya vinu ji, aapki post padh kr esa lagta h ki me b waha ghum aya hu. meri or s subhkamnaye
ReplyDeleteधन्यवाद मनोज जी।
Deleteबहुत जबरदस्त.. फोटू तो कमाल के है.. इसके आगे का विवरण कहां है
ReplyDeleteP.S. सर ये अन्तिम भाग है, हालाँकि इसके बाद हनोल भी गए और पूरी रात पहाड़ों पे ड्राइविंग करके मेरे गाँव भी गए। वो लिखा नहीं, क्योंकि ट्रैकिंग के सिवा लिखने का मन नहीं किया। इस वृतान्त को शुरू से पढ़ेंगे तो समझेंगे आप मेरी बात को। बहुत बहुत धन्यवाद।
DeleteWaah...snowfall to icing on the cake ho gayi. Perfect wrap to the travelogue.
ReplyDeleteधन्यवाद रागिनी जी।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया बीनू भाई मज़ा आ गया पढ़ कर
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