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तीसरा दिन - वाण से बेदिनी बुग्याल
सुबह सात बजे जब आँख खुली तो कल के तीन बिछड़े साथी भी दिखे। पता नहीं रात को कब पहुंचे, कल उनकी एक बाइक की हेड लाइट थराली के आस पास ख़राब हो गयी, दूसरी बाइक को सीध में चलाकर, उसकी लाइट के सहारे वो यहाँ पहुंचे, अँधेरा हो चुका था इसलिये रास्ते में कोई मेकैनिक भी नहीं मिला, इस कारण लेट हो गए। आज करीब 12 कि.मी. का ट्रैक् करके बेदिनी पहुंचना है। वाण की समुद्र तल से ऊंचाई 2450 मीटर, और बेदिनी लगभग 3500 मीटर, याने 12 कि.मी. में 1000 मीटर ऊपर चढ़ना है, तो चढ़ाई अच्छी खासी मिलने वाली है। आठ बजे तक सभी तैयार हो गए और नीचे वाण गांव के होटल में नाश्ता करने चल पड़े। हमने अपने घोड़े वाले भाई को नीचे गांव में ही मिलने को कहा था, क्योंकि स्लीपिंग बैग, टेण्ट, मैट्रेस सब कार में रखा था।
लम्बू भाई जो कल नीचे वापिस आने के लिए अकड़ रहा था, बिना कुछ बोले मस्ती में नीचे जा रहा था, अब पता नहीं उसका ह्रदय परिवर्तन खुद हुआ, या बाकियों द्वारा रात को मेरे सोने के बाद करवाया गया। वैसे हम सब बचपन के दोस्त हैं, तो हमारी आपसी समझ बहुत अच्छी है। यहीं फारेस्ट गेस्ट हाउस के पास लाटू देवता का मंदिर है, उससे थोडा नीचे एक पेड़ है इस पेड़ के तने पर गणेश जी की मुखाकृति उभरी है, स्थानीय निवासी इस पेड़ की पूजा करते हैं। नीचे होटल पहुंचकर सबने डट कर आलू के परांठे खाये, सामान को घोड़े पर लाद दिया, अपने पास छोटा बैग, पानी की बोतल, कैमरा और रेन कोट ही रखा, और लगभग 9 बजे ट्रैक् शुरू कर दिया। वाण गांव से तुरंत ही चढ़ाई शुरू हो जाती है, जो दो कि.मी. ऊपर रणकधार तक बनी रहती है। रणकधार के दायीं ओर ठीक ऊपर पहाड़ की चोटी पर बुग्याल का साम्राज्य दिख रहा था, अनुमान लग जाता है कि वहीँ चोटी पर पहुंचना है।
ये आली बुग्याल दिख रहा था, यहाँ से नीलगंगा तक लगातार उतराई है। रणकधार से हमने दौड़ लगायी, दस मिनट में नीलगंगा के पुल पर पहुँच गये, कुछ लड़के नदी में हो हल्ला और सीटियां बजाते हुए नहा रहे थे, पता नहीं क्या ख़ुशी मिलती है, कुछ लोगों को इस तरह की छिछोरी हरकतें करके, मजे लेने हैं शौक़ से लो भाई, हिमालय की गोद में आये हो, इस तरह बंदरों जैसी हरकत करके क्या पा लोगे ? ये घुमक्कड़ तो बिल्कुल भी नहीं हो सकते, मैंने आज तक किसी भी घुमक्कड़ को ऐसी छिछोरीपंथी करते नहीं देखा है।
नीलगंगा से इस ट्रैक की असली चढ़ाई शुरू होती है, जो लगातार बेदिनी तक बनी रहती है, शुरू के आधे की.मी. में ही लम्बू भाई पस्त होने लगा, ट्रैक से पहले मैंने ट्रैकिंग स्टिक (डंडे) बनाने के लिए डोभाल को कहा था, क्योंकि वो श्रीनगर में रहता है, और हर हफ्ते गांव जाता रहता है, आसानी से गाँव से ला सकता था, लेकिन उसने नहीं बनाये, वाण में होटल वाले से जब मांगे तो उसने तीन चार डंडे पकड़ा दिए, किसी भी ट्रैक पर डंडा एक जीवन रक्षक यंत्र है, सहारा तो देगा ही, फिसलने से भी बचाएगा और जंगल में आत्मरक्षा के लिए एक छोटे हथियार के रूप में प्रयोग भी किया जा सकता है। नीलगंगा से जैसे ही चढ़ना शुरू किया तो सबको डंडे की अहमियत मालूम पड गयी, फिर तो किसी ने भी अगले तीन दिन तक डंडे को खुद से दूर नहीं होने दिया। घना जंगल है, जो गैरोली पाताल से भी ऊपर तक बना रहता है। काफी ग्रुप नीचे उतरते हुए मिले, सभी से बातचीत होती रही, कुछ पूरा ट्रैक नहीं कर पाये, कुछ रूपकुंड तक कर आये, और कुछ तो उससे भी ऊपर जुनारगली हो आये। मैं जब इस ट्रैक की जानकारी जुटा रहा था, तो हमारे जाट देवता (संदीप पंवार) भाई ने मुझसे कहा कि हो सके तो जुनारगली तक अवश्य जाना, मेरे मन में तभी से ये बात थी कि अगर थोड़ी भी हिम्मत बाकी होगी तो जुनारगली अवश्य जाऊँगा।
हम सभी दोस्त बातें करते करते चढ़ते जा रहे थे, नीचे उतरने वालों की संख्या से अनुमान लग रहा था कि ट्रैक पर अच्छी चहल पहल होगी। सभी वहां की खूबसूरती की जबरदस्त तारीफ कर रहे थे, अधिकतर लोग साउथ, बंगाल और कुछ एक महाराष्ट्र से थे, एक पहाड़ी होने के नाते बहुत ख़ुशी मिलती है जब हमारे पहाड़ में दूर दूर से लोग आते हैं, और यहाँ की तारीफ करते हैं। रास्ते में कई जगह चॉकलेट और टॉफियों के रैपर्स पड़े मिले, उठा उठा के अपने बैग में भरने पड़े, थोडा यही बुरा लगता है, हम यहाँ गन्दगी फ़ैलाने थोड़े आये हैं, हमेशा इन रेपर या जो भी कूड़ा है, उसको अपने साथ ही वापिस ले आना चाहिए, कम से कम प्लास्टिक को तो बिलकुल भी नहीं फेंकना चाहिए, इन सबका वजन 200 ग्राम से ज्यादा नहीं होता होगा, ये हिदायत मैंने अपने पुरे ग्रुप को भी दे रखी थी।
नीलगंगा से गैरोली पाताल तक घना जंगल है और खड़ी चढ़ाई, अच्छा खासा रास्ता बना है, कहीं भटक नहीं सकते, चढ़ते हुए जंगल में एक पानी का सोता मिला, सभी ने अपनी बोतलें भर ली, इस ट्रैक पर पानी की उपलब्धता सीमित है, कुछ ही स्थान हैं जहाँ पानी मिलेगा, जैसे नीलगंगा के बाद गैरोली पाताल, बेदिनी, पातर नाचणी में ही पानी मिलता है, इसलिए जहाँ पानी मिले बोतल भर लेनी चाहिए। करीब एक बजे गैरोली पाताल पहुँच गये, रूपकुंड ट्रैक पर जगह जगह वन विभाग ने रात्रि विश्राम के लिए फाइबर हट बनाई हैं, गैरोली पाताल में भी है। स्थानीय निवासियों ने एक ढाबा भी खोल दिया है, सुबह का नाश्ता कब का हज़म हो चुका था, यहाँ पर नूडल्स खाये।
आधे घंटे आराम करने के बाद आगे बेदिनी के लिए चल पड़े, चढ़ाई अब भी है, थोडा ऊपर चढ़ने के बाद चोटी पर बुग्याल दिखने शूरू हो जाते हैं, धीरे धीरे जंगल ख़त्म होने लगता है। जैसे जैसे बुग्याल का क्षेत्र नजदीक आना शुरू होता है, बर्फीली हवा भी महसूस होने लगती है, विंड प्रूफ जैकेट ना पहनी हो तो हड्डियों को कीर्तन करने में समय नहीं लगेगा, वैसे चलते रहने से शरीर की गर्मी बनी रहती है। चार बजे जैसे ही बेदिनी बुग्याल ठीक सामने दिखा बस एक जगह खड़े होकर देखता रहा, जिधर भी नजर जाए दूर दूर तक हरी घास का मैदान, शानदार नजारा सामने था, चौखम्बा, त्रिशूल, नंदा घूंटी पर्वत एक साथ दिख रहे थे, वन विभाग की यहाँ पर काफी फाइबर हट बनी हैं, बैग को गाइड के बताये फाइबर हट में रखा और सुस्ताने लगे, हां कल रात को हम वाण में फारेस्ट गेस्ट हाउस में रुके थे तो, वहां के ब्यवस्थापक ने एक चिट्ठी दी थी, जो बेदिनी में फारेस्ट फाइबर हट के ब्यवस्थापक को देनी थी, जिससे हमको यहाँ पर एक हट मिल जायेगी, कल हम आगे बढ़ेंगे, फिर यहाँ वाले आगे के ब्यस्थापक के लिए चिट्ठी लिखेंगे, फ़ोन नेटवर्क हैं नहीं, तो यही कम्युनिकेशन का एक मात्र माध्यम है, यहाँ ऐसे ही चलता है।
बेदिनी में आजकल एक ढाबा भी खुला हुआ है, उसी में हमारे खाने की ब्यवस्था के लिये कह दिया, चाय पी तो थकान कम हुयी, कुछ देर बाद सुमित ने मुझसे पुछा कि आपको टेंट लगाना आता है, तो मुझे सीखना है, हमारे पास तीन टेण्ट थे, दो को लगा दिया, अभी धूप थी तो टेंट के अंदर गर्मी और हट में ठण्ड लग रही थी, जो जोशीले थे वो बोल पड़े हम तो टेण्ट में ही सोयेंगे, मैंने अपने लिए हट के अंदर एक कोना ढून्ढ कर कह दिया, जिसको जहाँ सोना है सोये, मैं तो हट में सोऊंगा। कुछ देर बाद सभी बेदिनी घूमने निकल पड़े, घूमने क्या घास के मैदान में टहलने निकल गये, थोडा ऊपर बेदिनी कुण्ड के पास गए तो कुण्ड की दीवार पर लेट गये, इस कुण्ड के पानी को पवित्र माना जाता है, यहीं पर नंदा देवी का छोटा सा मंदिर भी है, प्रसिद्ध नंदा देवी राज जात यात्रा जो हर 12 वर्ष में होती है, बेदिनी उसका एक अहम् पड़ाव है।
कुण्ड की दीवार पर लेटकर बड़ा आनंद आ रहा था, जैसे जैसे सूर्यास्त होता गया, ठण्ड का प्रकोप बढ़ना शुरू हो गया, जो जोशीले टेण्ट में सोने जा रहे थे वे भी अपना सामान समेट कर हट में जगह तलाशने लगे, सभी अपने स्लीपिंग बैग के अंदर घुसने शूरू हो गये, खाना खाने ढाबे तक जाना पड़ा, कांपते कांपते जो ठूंसना था ठूंसा और वापिस हट में आ गया, तापमान शून्य के आसपास तक गिर चूका था, नीचे मैट्रेस भी थी तब भी गर्मी नहीं मिल पा रही थी, हमारे घोड़े वाले ने अपने लिए एक कोने में बिस्तर लगाया था, जिसमें नीचे मैट्रेस की जगह, घोड़े की पीठ पर बिछायी जाने वाली काठी बिछा रखी थी, उसमें बजाय मैट्रेस के ज्यादा अच्छा इंसुलेशन मिलना था, थोड़ी देर बाद जब वो आकर बोले कि मैं ढाबे पर सोऊंगा तो तुरंत डोभाल ने उस बिस्तर पर कब्ज़ा कर लिया।
स्लीपिंग बैग मेरे को कभी भी आरामदायक महसूस नहीं होता, सर अंदर करके चेन बंद करो तो सांस कैसे लें, और खुली रखो तो ठण्ड लगती है, बहरहाल सर और मुहँ पर मफलर लपेट लिया, तकिया ढूंडा तो डोभाल का ही बैग सामने नजर आया, उसको सर के नीचे जैसे ही रखा "कड़क" की आवाज आयी, पता नहीं क्या टूटा, जो कुछ भी टूटा होगा सुबह देखूंगा, अभी तो बस सुबह तक स्लीपिंग बैग से बाहर न निकलने की कसम खाकर दुबक कर सो गया।
क्रमशः.....
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वाण फारेस्ट गेस्ट हाउस |
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पूरी टीम |
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गैरोली पाताल |
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यशवंत और लम्बू |
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यशवंत और लम्बू |
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डोभाल जी गैरोली पाताल में |
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जंगल समाप्त बुग्याल क्षेत्र में प्रवेश |
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बेदिनी से दिखता चौखम्बा |
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बेदिनी |
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बेदिनी बुग्याल और फारेस्ट फाइबर हट |
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गुज्जरों की भेड़ बेदिनी में |
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बुग्याल का मैदान |
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बेदिनी कुण्ड |
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बेदिनी में सुनहरी शाम |
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सूर्यास्त के समय सुनहरे बुग्याल |
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बेदिनी में सूर्यास्त |
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बेदिनी में सुनहरी शाम
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बेदिनी से दिखता त्रिशूल पर्वत |
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यशवंत |
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लम्बू और डोभाल |
इस यात्रा के सभी वृतान्तो के लिंक निम्न हैं:-
अदभुत...
ReplyDeleteक्या ?
Deleteयात्रा में रोमांच आ रहा है ! फोटो भी शानदार है
ReplyDeleteधन्यवाद प्रदीप भाई।
Deleteरोमांचक लेख ।
ReplyDeleteधन्यवाद कपिल भाई।
Deleteएक और शानदार यात्रा का आग़ाज़ ,बहुत मज़ा आ रहा है पढ़ने में। वेदनी बुग्याल का प्रत्येक फ़ोटो एक से एक बढ़कर।सचमुच धरती पर स्वर्ग जैसा।अद्बुत सौंदर्य।
ReplyDeleteधन्यवाद रूपेश भाई। वाकई है ही बहुत खूबसूरत जगह।
Deleteबीनू जी, लाजवाब यात्रा वृतांत...फोटो भी शानदार
ReplyDeleteधन्यवाद पाण्डेय जी।
Deleteसुन्दर वर्णन, हड्डियों का कीर्तन.....सही दृश्य उभर देता है ठण्ड का।
ReplyDeleteधन्यवाद रोमेश जी।
Deleteहड्डियों को कीर्तन करने में समय नहीं लगेगा...
ReplyDeleteGazab...
हा हा हा। धन्यवाद नीरज भाई, आपने तो झेली है वहां की ठण्ड।
Deleteमस्त यात्रा मनमोजियो की ।शानदार बुगियाल। आगे भी रोचकता बनी रहे । बढ़ियाँ फोटू
ReplyDeleteक्या खजियर के मैदान को भी बुग्याल कहर है ?
धन्यवाद बुआ। बुग्याल हिमालय में 2500 मीटर से 4000 मीटर की ही ऊंचाई पर होते हैं, बाकी कहीं नहीं।
Deleteफ़ोटो तो एक से बढ़कर एक हैं।
ReplyDeleteधन्यवाद हर्षिता जी।
Deleteroopkund meri wish list mein hai , dubara jaoo tho batana :-),
ReplyDeleteustad log sath mein tho maza dugna ho jatha hai
निश्चित रूप से जाऊंगा सेमवाल जी।
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ReplyDeleteगज़ब लिखते हो आप बीनू जी ! एक एक शब्द अपना सा महसूस होता है ! फोटो बहुत सुंदर हैं और सजीव लगते हैं जैसे कह रहे हों -तुम कब आओगे !!
धन्यवाद योगी भाई।
Deleteशानदार लेखन , कही भी झोल नहीं....
ReplyDeleteरोमांच बना रहा लेख में ....
मेरे हिसाब से कुछ कठीन यात्रा है ये
जी रितेश भाई, रूपकुण्ड कठिन यात्रा है। धन्यवाद।
ReplyDeleteसुंदर शैली...लाजबाब लेखन...
ReplyDeleteमन लालायित...पर अभी हौंसला न है
धन्यवाद डॉ साहब।
Deleteबहुत बढ़िया बीनू भाई
ReplyDeleteये बुग्याल और हिमालय के दिव्य नज़ारे आंनद से परे है
इन सबको शब्दों में वर्णित नही किया जा सकता
शब्दों की सीमा होती है
लेकिन जो आँखों ने देखा है वो नही लिख सकते
जी श्याम भाई, शब्द कम पड़ जाते हैं।
Deleteधरती पर स्वर्ग की यात्रा ! रोमांचक यात्रा कथा और तश्वीरें दिल में बस गई ! बहुत खूब !
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