Sunday, 8 January 2017

उत्तराखण्ड यात्रा:- थलीसैण से श्रीनगर, टेहरी और दिल्ली वापसी

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थलीसैण से श्रीनगर, टेहरी और वापसी
थलीसैण से जब आगे बढे तो दिन के तीन बज चुके थे। गढ़वाली में इस क्षेत्र को "राठ" के नाम से जाना जाता है। और यहाँ के निवासियों को "राठी"। आजादी के बाद से यह क्षेत्र विकास की दृष्टि से सदैव उपेक्षित ही रहा था, स्कूल, कॉलेज, सड़क, अस्पताल कुछ वर्षों तक इस क्षेत्र में बामुश्किल ही थे। मुझे याद है कि जब मैं श्रीनगर (गढ़वाल) में छात्रावास में पढता था तो मेरा एक सहपाठी इस क्षेत्र से ही था। छुट्टियों में जब हम अपने-अपने घर जाते थे तो लगभग सभी दोस्त सुबह चलकर शाम तक अपने घर पहुँच जाते थे। जबकि इस मित्र को पहुँचने में दो दिन लगते थे। उसको अपने अन्तिम बाजार, जहाँ तक सड़क थी उसके बाद भी 24 किलोमीटर पैदल चलकर अपने गाँव पहुँचना होता था। खैर...ये तब की बात थी। अभी इस क्षेत्र में अच्छी-खासी सड़कें बन गई हैं। और जब सड़कें बन गई हैं तो विकास खुद ब खुद हो ही जाता है। घूमने के लिहाज़ से यह क्षेत्र अभी भी अछूता ही है। इसके लिए मुझे यहाँ दुबारा आना ही होगा। 

थलीसैण से कुछ पहले एक सड़क सीधे रामनगर होकर कुमाऊं के लिए निकल जाती है, लेकिन हमें रुद्रप्रयाग पहुँचना था इसलिए पौड़ी की ओर जाने वाली सड़क पकड़ ली थी। मनु भाई सुबह से ड्राइव कर रहे थे, एक जगह उनको नींद की झपकी आई तो गाडी अनियंत्रित हो गई। इससे आगे ड्राइविंग की कमान शशि भाई ने सम्भाल ली। आगे चलकर एक जगह बरसुडी गाँव पड़ा तो रुककर सड़क किनारे लगे गाँव के बोर्ड के साथ एक फ़ोटो खींचकर आगे बढ़ चले। भरसार, पाबों बिना रुके पार हो गए। यहाँ पहुँचते-पहुँचते सूर्यदेव भी अस्त हो चुके थे। अभी से एहसास होने लगा था कि आज समय से रुद्रप्रयाग तो किसी भी सूरत में नहीं पहुँच सकते। आगे चलकर जब पौड़ी-खिर्सू मार्ग पर पहुँचे तो अँधेरा छाने लगा था। यहाँ से दाहिनी ओर चलते तो खिर्सू-देवलगढ़ होकर रुद्रप्रयाग पहुँच जाते लेकिन अँधेरा हो चुका था और इस रास्ते पर ज्यादा ट्रैफिक भी नहीं होता साथ ही रुद्रप्रयाग पहुँचने तक दस बज जाएंगे ये निश्चित था। तय हुआ कि बायीं ओर ही मुड़ लेते हैं, पौड़ी पहुँचकर मुख्य हाईवे पकड़ लेंगे, समय रहते जहाँ तक पहुँच पायेंगे वहीँ रात्रि विश्राम के लिए रुक जाएंगे। 



पौड़ी पहुँचते तब तक रात हो चुकी थी यहाँ से श्रीनगर की दूरी मात्र 29 किलोमीटर ही है आराम से एक घण्टे में श्रीनगर भी पहुँच जाएंगे। सुबह छह बजे से लगातार चले ही जा रहे थे, अगर हम ताड़केश्वर से वापिस लैंसडौन चले जाते और फिर पौड़ी वाला मार्ग लेते तो काफी पहले ही पौड़ी पहुँच चुके होते। आराम से चलते हुए आठ बजे श्रीनगर पहुँच गए। बस अड्डे के पास ही एक होटल में दो कमरे ले लिए और आज की रात यहाँ श्रीनगर ही रुकने का निर्णय ले लिया। दिल्ली से जब हस्तिनापुर का बोल के चला था तो घर पर आज रविवार को वापिस पहुँचने का बोल कर आया था। लेकिन आज तो 350 किलोमीटर दूर श्रीनगर में होटल में पड़ा हूँ, अब कल रात तक हर हाल में घर पहुँचना ही होगा यह सोचकर कल की प्लानिंग शुरू कर दी। 



कल सुबह अगर हम रुद्रप्रयाग से आगे कार्तिक स्वामी तक जाते हैं तो किसी भी सूरत में कल रात तक दिल्ली वापिस नहीं पहुँच सकते। इसलिए कार्तिक स्वामी के दर्शन भविष्य में फिर कभी कर लेंगे अभी दिल्ली की ओर ही कूच करते हैं। मनु भाई अभी कुछ समय पहले ही टेहरी की ओर आए थे तो उनको किसी स्थानीय ने एक गाँव में ये बता दिया कि वो यहाँ उनको जमीन दिलवा देंगे। मनु भाई की इच्छा थी कि हम भी उस जगह को देख लें। तो तय हो गया कि कल टेहरी की ओर निकल कर दिल्ली वापिस निकल जाएंगे। श्रीनगर पहुँचते ही सुमित को फोन कर दिया था, कुछ देर बाद सुमित भी होटल में ही आ पहुंचा रात को वो भी हम सभी के साथ यहीं रुकेगा, काफी देर तक गप्पों का दौर चला मुझे तो कब नींद आ गई मालूम ही नहीं पड़ा।



सुबह सात बजे तक सभी तैयार हो गए और निकलने की तैयारी शुरू कर दी। बस अड्डे पर पहुँचकर चाय पी और टेहरी की ओर चल पड़े। कीर्तिनगर से कुछ आगे मलेथा गाँव से एक सड़क दाहिनी ओर जाती है जो सीधे टेहरी निकलती है। मलेथा गाँव का गढ़वाल के इतिहास में बहुत बड़ा स्थान है। पूर्व में जब गढ़वाल में राजशाही थी तो इस गाँव के एक निवासी हुआ करते थे "माधो सिंह"। मलेथा गाँव के अलकनन्दा के किनारे पर बसा होने के बावजूद यहाँ पानी की भारी किल्लत हुआ करती थी। चूँकि अलकनन्दा से कुछ ऊंचाई पर यह स्थान है इसलिए नदी का पानी यहाँ के किसी काम का नहीं था। खेतों की सिंचाई के लिए स्थानीय निवासी एक-एक बूँद पानी के लिए तरसते थे। 



माधो सिंह राजा महिपतशाह की सेना में सेनापति थे। तब गढ़वाल की राजधानी श्रीनगर में हुआ करती थी। एक बार माधो सिंह अपने गाँव मलेथा आए तो जब उनकी पत्नी ने उन्हें रुखा-सूखा भोजन खाने को दिया तो माधो सिंह ने अपनी पत्नी से इसका कारण पूछा। तब उनकी पत्नी ने बताया कि गाँव में पानी की इतनी किल्लत है कि ना तो सब्जियां उगाई जा सकती हैं ना ही कुछ। माधो सिंह को ये बात चुभ गई। मलेथा गाँव के दूसरी ओर पहाड़ के पार चंद्रभागा नदी बहती थी। चूँकि बीच में पहाड़ होने के कारण उसका पानी भी इस ओर नहीं आ सकता था तो माधो सिंह ने पहाड़ में सुरंग बनाने की ठान ली। पहले तो माधो सिंह अकेले ही इस काम में जुट गए लेकिन बाद में पूरे गाँव के लोग भी उनके साथ हो गए।

सुरंग पूरी होने के बाद भी जब चंद्रभागा का पानी पहाड़ के इस ओर नहीं आया तो सभी परेशान हो गए। एक रात माधो सिंह के सपने में उनकी कुल देवी ने आकर कहा कि अगर तुम पुत्रबलि दोगे तभी पानी मलेथा गाँव तक आ पाएगा। माधो सिंह के एकलौते पुत्र थे गजेसिंह, जब गजेसिंह को इस बात का मालूम पड़ा तो वह खुद की बलि के लिए सहर्ष तैयार हो गए। इसके बाद पूरे क्षेत्र की भलाई को देखते हुए माधो सिंह ने अपने एकलौते पुत्र की बलि दे दी। इसके बाद चंद्रभागा नदी का पानी सुरंग से होकर मलेथा गाँव तक पहुँच गया। जो इस क्षेत्र और इस गाँव की प्यास आज तक बुझा रहा है। माधो सिंह की वीरता के गाने आज भी गाये जाते हैं, एक गाने की पंक्ति इस प्रकार है...

एक सिंह रैंदो बण, एक सिंह गाय का। 
एक सिंह माधोसिंह, और सिंह काहे का।

इसका हिंदी शब्दार्थ इस प्रकार है :-
एक सिंह वन में रहता है, एक सींग गाय का होता है। एक सिंह माधोसिंह है। इसके अलावा बाकी कोई सिंह नहीं है।

मलेथा से आगे बढ़कर हम टेहरी की ओर चल पड़े, कुछ आगे चलकर मगरौ गाँव आता है, यह जगह मनु भाई को इतनी पसन्द आई थी कि यहीं घर बसाने की ठान ली इसलिए हम सभी को भी यहाँ ले आए। कुछ देर यहाँ रुककर आस-पास का इलाका देखा, यहीं सड़क किनारे एक ढाबे पर नजर पड़ी तो नाश्ते का आर्डर भी दे दिया। शानदार आलू के पराँठे खाकर जब तृप्ति हुई तो आगे बढ़ चले। मगरों से कुछ ही दुरी पर पौखाल बाजार से भी बिना रुके हुए आगे चल पड़े। कुछ आगे जाकर जब टेहरी झील का विहंगम दृश्य सामने नजर आया तो बिना कहे ही गाडी पर ब्रेक लग गए और फोटोग्राफी शुरू हो गई।

सामने पर टेहरी का प्रसिद्द खेंट पर्वत और उसके नीचे टेहरी झील यहाँ से शानदार दिखती है। काफी देर तक टेहरी झील को निहारते रहने के पश्चात आगे बढ़ चले। यह सड़क पीपलडाली पर टेहरी से रुद्रप्रयाग निकलने वाली सड़क पर मिल जाती है। यहां पीपलडाली पर ही झील के उस पार जाने के लिए उत्तराखण्ड प्रसिद्द पुल पर कुछ देर रुककर फोटोग्राफी की गई। झील के साथ आगे बढे तो टिपरी रोपवे दिखाई दिया, इसकी भी सवारी करने के लिए मन ललचा गया। 984 मीटर लम्बे इस रोपवे के बनने से दूसरी ओर के गाँवों के लोगों का जीवन बहुत आसान हो गया, अन्यथा टेहरी झील के दूसरी ओर के गाँवों का दुखड़ा वही जानता है जो उस पार रहता है। रोपवे का चक्कर काटने के बाद आगे बढे तो मालूम पड़ा इस बार टेहरी शहर में जाने के लिए आम यातायात बाँध के ऊपर से ही जा रहा है। उससे पहले जब भी इधर से गुजरा था तो कभी बाँध के ऊपर से जाकर दूसरी ओर जाने का मौका नहीं मिला था। 

हर एक आने-जाने वाले को कड़ी सुरक्षा से होकर ही डैम के ऊपर से गुजरने दिया जा रहा था। हमारी गाडी की भी अच्छी-खासी तलाशी होने के पश्चात ही आगे जाने दिया गया। डैम के पार जाकर आगे झील के किनारे पानी में कई प्रकार के मनोरंजक खेलों के लिए विशेष जगह बनाई गई है। जहाँ पर कई प्रकार के वाटरस्पोर्टस होते हैं। आज भी यहाँ पर काफी भीड़ थी, हम भी कुछ देर रुककर लोगों को इन खेलों का मजा लेते हुए देखते रहे। दिन के दो बज चुके थे अब जल्दी से यहाँ से आगे बढ़ने की बारी थी, घर पर एक दिन का कहकर निकला था और यहाँ तीन दिन हो चुके थे। जल्दी से दिल्ली की ओर प्रस्थान कर दिया।


थलीसैण

थलीसैण




एक और बरसूड़ि गाँव


बादल फटने के साइड इफेक्ट

कीर्तिनगर

माल्टा


कद्द

पहाड़ी टमाटर



मगरों

पौखाल बाजार

टेहरी झील और खेंट पर्वत

पीपलडाली पुल

टेहरी झील

टिपरी रोपवे


टेहरी झील पर वाटर स्पोर्ट्स




12 comments:

  1. बेहतरीन सैरनामा और खूबसूरत फ़ोटो

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  2. बढ़िया यात्रा वृतांत ! पर इस बार जल्दबाजी में सब सिमट सा गया ।

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    1. धन्यवाद मुकेश जी, असल में ज्यादा घूमे भी नहीं थे.

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  3. जोगी जी,
    फोटोग्राफ काफी खुबसुरत हैं, आपने लेखनी से हमे वर्चुअल यात्रा ही करवा दी है. रोपवे केवल स्थानीय निवासियों के लिये उनके आने-जाने के ही हैं या पर्यटकों के लिये भी है. रोपवे से कहां जाते हैं.
    धन्यवाद सहित,
    संतोष सिंह
    जयपुर

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    1. धन्यवाद संतोष जी, रोपवे से सभी लोग जा सकते हैं। झील के दूसरी ओर कुछ खास है नहीं देखने लिए। बस झील के उस ओर से डैम कैसा दिखता है इसी लालसा में लोग उधर घूमने चले जाते हैं.

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  4. जब आपकी यात्रा में गांवो के नाम व उनसे जुड़े किस्से पढ़ते है तब और भी जानने का मन होता है। टिहरी झील के फ़ोटो बहुत ही सुन्दर लगे। पीपलडली का पुल सुन्दर है, अब की बार उधर गया भी लकिन ये सब नहीं देख पाया। आगे देखेंगे ये नज़ारे भी।
    आपका यात्रा वर्णन बहुत अच्छा लगा।

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    1. जी सचिन भाई, धन्यवाद.

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  5. आपके लेखन की एक खास बात कि आप हर चीज़ को बारीकी से समझाते हैं आसान शब्दों में, जिसके लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद|बेशक ,सभी फोटो पहले की तरह बहुत ही खुबसूरत |

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    1. बढ़िया यात्रा वृतांत / फोटोग्राफ काफी खुबसुरत हैं,
      BHAI JI APP KHA SE BILONG KARTE HAI.... MAI THALISAIN SE HU........

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    2. जी मेरा मूल गांव बरसुडी है।

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