कैलाश कुण्ड और छतरगला वापसी
रात को कैम्प में पहुँचकर सबसे पहले टेण्ट लगाया। तापमान काफी कम था, ठण्ड भी बड़े जोरों से लग रही थी। चूँकि टेण्ट मेरे पास था और मैं ही लेकर आ रहा था तो शशि भाई के पास इन्तज़ार करने के सिवाय कोई चारा नहीं था। पहुँचते ही टेण्ट लगाकर उसमें घुस गए। थकान के मारे सबकी हालत ख़राब थी। कोठारी जी को ठण्ड से झुरझुरी छूठ रही थी। जैसे ही उन्होंने इस बारे में बताया तो उनको तुरन्त बुखार की एक गोली दे दी। और उनको ये भी आगाह कर दिया कि आपको बुखार आने वाला है। पसीने वाले कपडे निकालकर गर्म कपडे पहन कर सोएं। दिन भर चलने के बाद थकान के कारण अक्सर ऐसा होता है।
भदरवाह से लाए पैक पराँठे खोल लिए, थकान के कारण खाने का मन किसी का भी नहीं था। फिर भी जबरदस्ती जितना ठूँस सकते थे ठूँस लिया। खाना खाकर आराम करने लगे तो मालूम पड़ा कि हम अभी कैलाश कुण्ड नहीं पहुँचे हैं। कैलाश कुण्ड आधा किलोमीटर दूर है। हमने ऋषि-पिशि झील के किनारे अपना कैम्प लगाया है। वैसे भी समय इतना ज्यादा हो चुका था कि आगे बढ़ना बिल्कुल भी सही नहीं था। और जब से अँधेरा छाया था उसके बाद कैम्प लगाने की सबसे बेहतर जगह यही थी। अब जो भी होगा सुबह देखेंगे। एक बार टॉयलेट करने टेण्ट से बाहर जाना पड़ा तो वो झुरुझुरी छूटी कि कसम खा ली कुछ भी हो जाएगा लेकिन सुबह से पहले स्लीपिंग बैग से बाहर नहीं निकलूँगा। यही हाल सबका था। शशि भाई तो खाली बोतल स्लीपिंग बैग के अन्दर लेकर सोने को तैयार थे।
सुबह उजाला होते ही आँख खुल गई। टेण्ट पर ओस की गिरी बूंदों से अनुमान लग गया कि बाहर ठण्ड का आलम क्या है। चुपचाप केचुआ के स्लीपिंग बैग के अन्दर केंचुवा बन के ही लेटा रहा। आज कैलाश कुण्ड जाकर वापिस छतरगला तक ही नीचे उतरना था इसलिये कोई जल्दी नहीं थी।
कबलाश पर्वत की चोटियों पर सात झीलों में ऋषि और पिशि झील भी हैं। चारों और ऊंची चोटियों के बीच में ये सभी स्थित हैं। ऋषि झील के तट पर ही हमने टेण्ट लगाए थे। जब सात बजे तक भी धूप का कोई नामोनिशान नहीं दिखा तो टेण्ट से बाहर निकल आए और कैलाश कुण्ड के लिए प्रस्थान कर दिया। कुछ ऊपर ही टिन शेड बने नजर आ रहे थे। कोठारी जी कैम्प में ही रुक गए बाकी हम चार पत्थरों पर उछल कूद करते हुए कैलाश कुण्ड की ओर चढ़ने लगे।
असल में रात के अँधेरे में हम रास्ता भटक गए थे। कल शाम जब अमित भाई, रमेश जी और शशि भाई आगे-आगे चल रहे थे तो इनको एक चोटी पर झण्डी दिखाई दी थी। वहां से दो ओर रास्ता जा रहा था। झण्डी जिधर लगी थी वो रास्ता कुछ दूर तक खतरनाक सा था जबकि दूसरी ओर वाला रास्ता अच्छा बना हुआ दिखाई दे रहा था। ये लोग भ्रमित हो गए और इन्होंने झण्डी उखाड़ के दूसरे वाले रास्ते पर लगा दी। साथ ही शशि भाई की ड्यूटी लगा दी कि वहां से आवाज़ें लगाकर हमको भी बता दें कि झण्डी वाले रास्ते पर ही आना। खैर इससे ज्यादा फर्क नहीं पड़ा जब वापसी में सही रास्ते से लौटे तो वो भी कोई भला चंगा नहीं था। इसी गलत रास्ते का छोठा भाई था।
आराम से चलते हुए जब कैलाश कुण्ड पहुंचा तो पहली बार किसी भी ट्रैक पर हार्दिक ख़ुशी वाली अनुभूति नहीं हुई। शायद इसका मुख्य कारण हाल ही में संपन्न हुई कैलाश कुण्ड यात्रा थी। वृत्ताकार कुण्ड कबलाश पर्वत की चोटी के ठीक नीचे स्थित है। भगवान वासुकी नाग का यह पवित्र स्थान माना जाता है। एक बडा सा पत्थर तालाब के एक किनारे पर स्थित है, जिस पर शिवलिंग विराजमान है। कुण्ड का मुआयना किया तो कैलाश कुण्ड यात्रा में आए तीर्थयात्री चारों ओर अपने तीर्थयात्री होने के सुबूत छोड़ गए थे। मन खिन्न सा हो गया। ठीक ग्लेशियर की उत्पत्ति में ऐसी गन्दगी फ़ैलाने का कैसे किसी का मन करता होगा। लेकिन भगवान के आगे किसको इसकी परवाह। हद तो तब हो गई जब ढेर सारी दवाइयाँ एक जगह में ठीक कुण्ड के किनारे फेंकी दिखाई दी। ये निश्चित रूप से या तो सरकारी लापरवाही थी या यात्रा के आयोजकों की।
कुछ निर्माण कार्य भी किया गया है, जिसमें बिल्कुल कुण्ड के साथ ही टिन शेड बनाए गए हैं। एक बार मन आया कि पूरे कुण्ड की परिक्रमा की जाए लेकिन थोडा सा भी रास्ता नहीं दिखा। कुछ एक साथियों का कुण्ड में डुबकी मारने का कई दिन से मन था लेकिन यहाँ फैली गन्दगी देख कर सबकी आस्था की डुबकी का ख्याल रफू चक्कर हो गया। वैसे धूप भी अभी तक निकली नहीं थी, ठण्ड इतनी ज्यादा थी कि बर्फीली हवा से ही अंगुलियां सुन्न हो रही थी। भोले बाबा को नमन किया और माफ़ी मांगी कि गलत वक़्त पर आपके पास आ गया। और भविष्य के लिए ये सबक भी ले लिया कि कभी ऐसी जगह यात्रा के तुरन्त बाद नहीं आऊंगा।
काश इस खूबसूरत जगह पर यात्रा से पहले आता, सब कुछ स्वाभाविक रूप में मिलता। मन को तृप्ति भी होती। इसलिए किसी भी तीर्थयात्रा पर मेरा जाने का मन नहीं होता। हम ये मान कर आ जाते हैं कि खुद के पाप धो कर आ गए, लेकिन प्रकृति के लिए जो पाप करके आए हो वो तुम नहीं, तुम्हारी आने वाली पीढियां भुगतेंगी।
भगवान वासुकी नाग की भूमि होने के कारण कैलाश कुण्ड की इस क्षेत्र में विशेष महत्वता है। प्रत्येक वर्ष होने वाली कैलाश कुण्ड यात्रा में हज़ारों श्रद्धालु इस यात्रा के लिए यहाँ पहुँचते हैं। निश्चित रूप से ये एक कठिन यात्रा है। फिर भी श्रद्धा व भक्ति के सामने कठिनाई कहाँ टिकती है। इस पूरे ट्रैक पर कहीं भी रहने-खाने की व्यवस्था नहीं है, साथ ही दुर्लभ परिस्थितियों का सामना भी करना पड़ता है। ऐसे में जो कोई अकेले यहाँ आना चाहता हो उनके लिए यात्रा के समय यहाँ आना उचित होगा। तब खूब सारे भण्डारे लगे मिलेंगे साथ ही रहने के लिए कुछ न कुछ मिल ही जाएगा। प्रत्येक वर्ष नाग पंचमी से ठीक पहले इस यात्रा का आयोजन किया जाता है।
आधा घण्टा कुण्ड में बिताने के बाद वापिस नीचे कैम्प की ओर प्रस्थान कर दिया। दायीं ओर दूसरी पहाड़ी पर सूर्यदेव ने किरणों को प्रकट कर ही दिया। चाय की बड़ी इच्छा हो रही थी, लेकिन हम कुछ भी सामान साथ लेकर नहीं आए थे। नाश्ते में रात के बचे हुए पराँठे ठूंसने शुरू कर दिए, किसी का मन किया किसी का नहीं। कुछ बिस्कुट के पैकेट आपस में बाँट लिए। टेण्ट रात की गिरी ओस से गीले पड़े थे धूप यहाँ तक पहुँचे तो सुखाकर समेट लें यही इन्तज़ारी करने लगे। आधे घण्टे में जब धूप कैम्प तक पहुँची तो बड़ी राहत मिली।
आज रमेश भाई जी को चलने की बड़ी जल्दी थी, मालूम नहीं क्यों। सबके पीछे पड़े हुए थे, जल्दी चलो-जल्दी चलो। जबकि मुझे, अमित भाई और शशि भाई को कोई जल्दी नहीं थी। कोठारी जी भावबिहीन थे, उनको कोई फर्क नहीं पड़ रहा था कि जल्दी करो या देर करो। करीब आधे घण्टे बाद जब टेण्ट कुछ हद तक सूख गए तो उनको समेटकर वापसी की तैयारी शुरू कर दी। कल हमने आखिरी में गलत रास्ता ले लिया था, आज सही रास्ते से वापसी कर रहे थे।
शुरू के एक किलोमीटर में वापिस नाक की सीध पर चढ़ना था। ना तो कल रात को कुछ ढंग से खाया था ना आज सुबह। अक्सर अधिक ऊंचाई पर भूख भी नहीं लगती। लगभग भूखे पेट ही ट्रैकिंग कर रहे थे। शुरू के एक किलोमीटर की चढ़ाई के बाद लगातार उतरना ही था। घिसट-घिसट कर जब ये चढ़ाई पार की तो चैन मिला। कुछ आगे तक बोल्डर क्षेत्र है, यहाँ तक कोठारी जी के साथ-साथ चलूँगा, यही सोचकर अगला एक किलोमीटर और तय किया। सुबह सबेरे बादलों ने आज भी पीछा नहीं छोड़ा। जैसे ही घिर आते वैसे ही ठण्ड लगनी शुरू हो जाती। ये तीन हजार मीटर से पहले पीछा नहीं छोड़ने वाले यही सोचकर नीचे की ओर दौड़ लगा दी।
भूखे पेट ट्रैकिंग का नतीजा यहाँ भी भुगतना पड़ रहा था। अगर सुबह अच्छे से नाश्ता किया हो तो कभी ट्रैकिंग में दिक्कत नहीं आती। आज नीचे उतरते हुए भी थकान महसूस हो रही थी। हालाँकि बिस्कुट का पैकेट पास में था फिर भी खाने का मन नहीं किया। कल जहाँ पर गुर्जरों का एक ठिकाना मिला था वहां पर रमेश भाई जी और अमित भाई को दूर से ही बैठे देखा तो उम्मीद जगी कि यहाँ पर चाय मिल जायेगी। ऐसे तो यहाँ पर कोई दुकान नहीं थी लेकिन अक्सर गुज्जर लोग ट्रेकरों को चाय पिला ही देते हैं। जब पास पहुंचा तो निराशा ही हाथ लगी।
यहाँ पर छोठा सा बुग्याली मैदान है, जिसमें लेटकर आराम करने लगे। छतरगला अभी लगभग तीन किलोमीटर की दुरी पर है। करीब पंद्रह मिनट आराम करके नीचे उतरना शुरू कर दिया। लगातार उतरते रहने से घुटने भी दर्द करने लगते हैं। आराम से उतरते हुए दिन के करीब दो बजे छतरगला पहुँच गए। शशि भाई और कोठारी जी अभी पीछे रह गए थे। जब तक सभी साथी पहुँचते हैं, तब तक अपनी लाल परी (कार) को स्नान करवा लेते हैं। साथ में ही ऊपर पहाड़ों से बहकर आता पानी का चश्मा था। गाडी वहीँ पर ले जाकर कार की धुलाई की गई।
बर्फीली हवा बड़े जोरों से चल रही थी। बाहर रहने से अच्छा कार में ही बैठकर इन्तज़ारी की जाए। कुछ देर बाद शशि भाई भी पहुँच गए। भूख भी जोरों से लग रही थी। छतरगला से ही आगे सरथल घाटी शुरू होती है। वापसी के लिए हमने यही रास्ता चुना था। सरथल घाटी से आगे बनी, बशोली होते हुए पठानकोट पहुँचना तय किया था। आज जहाँ भी रात होगी वहीँ होटल लेकर रुक जाएंगे। करीब एक घण्टा इन्तज़ारी करने के बाद कोठारी जी पहुँच गए। कोठारी जी ने पहुँचते ही कहा कि यार चाय पिला दो। उनको सबने यही कहा कि गाडी में बैठिये पंद्रह किलोमीटर दूर एक बाजार पड़ेगा वहां चाय मिल जायेगी। कोठारी जी के बैठते ही सरथल घाटी की ओर लाल परी को दौड़ा दिया......
क्रमशः........
कैलाश कुण्ड |
कैलाश कुण्ड |
ऋषी, पिशि झील |
वापसी |
पाँच नगीने |
छतरगला |
इस यात्रा के सभी वृतान्तो के लिंक इस प्रकार हैं :-
बहुत बढ़िया
ReplyDeleteधन्यवाद नट्टू भाई।
Deleteपता नही हिंदुओ को कब सफाई की अक्ल आयेगी... कम से कम धर्म स्थान को तो बख्शना चाहिये.. ये काम केवल साधू संत कर सकते हैं.. सफाई को धर्म के साथ जोड़कर
ReplyDeletePS sir, are you back in Delhi?
Deleteजी P.S. सर दिल्ली में हैं। फेसबुक पे कॉन्टेक्ट कीजिये, वहां भी एक्टिव हैं।
DeleteShukriya Beenu bhai!
Deleteसही कहा P.S. सर। खासकर धार्मिक यात्रा के समय इस बात का प्रचार-प्रसार जरुरी है।
Deleteपर मैंने गोली नहीं निगली थी। पता था, ये पहाड़ी आबोहवा 4-5 घंटे के आराम व नींद के बाद हमें तरोताजा कर देगी।
ReplyDeleteयहाँ रात का तापमान पक्का -10℃ था। जान सकता हूँ, जब मैं दो बार लघु शंका के लिए बाहर निकला था।
'कैलाश कुण्ड' पर रात को अम्बर ऐसा लग रहा था मानों उसने झिलमिल सितारों वाली चुंदड़ी ओढ़ रखी हो तथा भाल पर अष्टमी का चंद्रमा शोभायमान था।
अफस़ोस भारी ठंड व थकावट के कारण कोई भी टेंट से निकल कर फोटो लेने की हिम्मत नहीं कर सका। वर्ना यहां से 'गेलेक्सी शॉट' शानदार लिया जा सकता है।
आते वक़्त पता चल रहा था कि कल अपन ने कितना रास्ता तय किया था। मुझे तो ये रास्ता 10 किमी से कम नहीं लगा।
धन्यवाद कोठारी सर।
Deletewah
ReplyDelete:) धन्यवाद।
Deleteइस पोस्ट की ये लाइन ने हंसा-हंसा के बुरा हाल कर दिया - "चुपचाप केचुआ के स्लीपिंग बैग के अन्दर केंचुवा बन के ही लेटा रहा।" हा-हा-हा ;)
ReplyDeleteहालत ही ऐसी थी संदीप भाई। :)
Deleteकुछ एक साथियों का कुण्ड में डुबकी मारने का कई दिन से मन था लेकिन यहाँ फैली गन्दगी देख कर सबकी आस्था की डुबकी का ख्याल रफू चक्कर हो गया।
ReplyDelete..दूर दूर से पहुँच धामिक स्थानों का बुरा हाल देख सच में आस्था पर प्रश्न चिन्ह लग जाता है ..फिर भी अच्छा लगता है वापस आकर घूम फिर कर ..
जी कविता जी। धन्यवाद।
Deleteबहुत बढ़िया बीनू भाई .... आपका ये ट्रेक लेख पसंद आया
ReplyDeleteगंदगी फैलना मुझे भी बिल्कुल पसंद नहीं ..... आस्था के केंद्र पर गंदगी देखकर ही मन विचलित हो जाता है ....मैंने भी किसी धार्मिक जगह पर किसी मेले या आयोजन के बाद नहीं जाता |
तीर्थ यात्रियों को इस बात को समझना चाहिए रितेश भाई। धन्यवाद।
DeleteAnother very nice and lively write-up.
ReplyDeleteZurzhurri ki bhi feel aa gayi thi :-)
Hope to meet you some day Beenu bhai.
जरूर सर। धन्यवाद।
Deleteअभी अगर इसकी गन्दगी को छोड़कर इसकी खूबसूरती पर ध्यान दिया जाए तो सच में बहुत खूबसूरत जगह है , और जो टीन की छत लगाईं हुई है वो इसे और भी सुरक्षित बनाएगी ! बेहतरीन यात्रा पढ़कर आनंद भी आ रहा है और जानकारी भी मिल रही है
ReplyDeleteफ़िलहाल तो टिन की सिर्फ छत ही है योगी भाई। कमरे टाइप का कुछ नहीं है यहाँ पर। साइड की दीवारें भी बनी होती तो शायद कुछ लोग जो बिना टेण्ट के यहाँ जाना चाहते हैं उनकी संख्या में इजाफा हो। धन्यवाद।
Deleteभोत बढिया बीनू सरकार, सारे घुमक्कड़ों की जय जयकार।
ReplyDeleteधन्यवाद ललित सर। जय जय...
Deleteबीनू भाई आपके खट्टे मिठ्ठे अनुभव को पढ़ना अच्छा लगा।
ReplyDeleteधन्यवाद सचिन भाई।
DeletePlease link this post to the last one.
ReplyDeleteAnother interesting post. But how did 5 people fit in the tiny tent!
दो टेण्ट थे हमारे पास रागिनी जी। एक Quechua T2+ और एक T2 टेण्ट ले गए थे। पोस्ट को लिंक अप कर दिया है। बहुत बहुत धन्यवाद।
Deleteपढ़ के अच्छा लगा
ReplyDeleteधन्यवाद विश्नोई जी.
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