आयोजन और दिल्ली से रवानगी
"मिनी कश्मीर" जी हाँ इसी नाम से भदरवाह या भद्रकाशी को जाना जाता है। पिछले दिनों हुए अजीबोगरीब घटनाक्रम से जब मन अशान्त हो गया तो मन पहाड़ की ओर भटकने लगा। ऐसे ही एक दिन अमित तिवारी भाई को कहा कि यार निकलते हैं कहीं दो-चार दिन के लिए, मुझे कुछ सूझ नहीं रहा, जहाँ आप बोलोगे निकल पड़ेंगे। अमित भाई तुरन्त तैयार हो गए और शाम तक जम्मू-कश्मीर के डोडा जिले स्थित भदरवाह और उससे आगे कैलाश कुण्ड ट्रैक करने का पूरा कार्यक्रम मेरे को भेज डाला। घूमने के मामले में अमित भाई की और मेरी इच्छाएं लगभग एक जैसी ही हैं, इसलिए मुझे मालूम था कि ट्रैक तो होना ही था चाहे छोठा सा ही क्यों ना हो। पहले बनाये कार्यक्रम के अनुसार हमको वीरवार शाम को दिल्ली से उधमपुर के लिए निकलना था, लेकिन जब किसी भी ट्रेन में टिकिट नहीं मिली तो एक दिन पहले बुधवार को ही निकालना तय कर लिया।
हमारी इस यात्रा की जानकारी जब घुमक्कड मित्रों को मालूम पड़ी तो उधमपुर से रमेश शर्मा जी, जयपुर से देवेन्द्र कोठारी जी और गजरौला (उ.प्र.) से भाई शशि चड्डा भी इस यात्रा में साथ चलने के लिए तैयार हो गए। पहले अम्बाला से नरेश सहगल भी इस यात्रा में साथ चलना चाहते थे लेकिन उनको अपने कार्यालय से अवकाश नहीं मिला इसलिए उनको अपना कार्यक्रम रद्द करना पड़ा। यात्रा की तैयारियों से सम्बंधित जानकारी के लिए रमेश भाई जी ने हम छह लोगों का एक व्हाट्स एप्प ग्रुप बना दिया जिससे हम सभी आपस में जुड़े रहें। अब जब हम पाँच लोग इस यात्रा में जा रहे हैं तो रमेश जी उधमपुर से अपनी कार से आगे चलने को तैयार हो गए, जिससे समय की बचत भी होगी और अपना वाहन रहेगा तो जिधर मन आये उधर मोड़ लेंगे।
हमारी इस यात्रा की जानकारी जब घुमक्कड मित्रों को मालूम पड़ी तो उधमपुर से रमेश शर्मा जी, जयपुर से देवेन्द्र कोठारी जी और गजरौला (उ.प्र.) से भाई शशि चड्डा भी इस यात्रा में साथ चलने के लिए तैयार हो गए। पहले अम्बाला से नरेश सहगल भी इस यात्रा में साथ चलना चाहते थे लेकिन उनको अपने कार्यालय से अवकाश नहीं मिला इसलिए उनको अपना कार्यक्रम रद्द करना पड़ा। यात्रा की तैयारियों से सम्बंधित जानकारी के लिए रमेश भाई जी ने हम छह लोगों का एक व्हाट्स एप्प ग्रुप बना दिया जिससे हम सभी आपस में जुड़े रहें। अब जब हम पाँच लोग इस यात्रा में जा रहे हैं तो रमेश जी उधमपुर से अपनी कार से आगे चलने को तैयार हो गए, जिससे समय की बचत भी होगी और अपना वाहन रहेगा तो जिधर मन आये उधर मोड़ लेंगे।
दिल्ली से उधमपुर ए.सी. स्पेशल में हमारी टिकिट रिज़र्व थी, जो रात को दस बजे सराय रोहिल्ला से चलकर सुबह साढ़े आठ बजे उधमपुर पहुंचा देगी। यात्रा वाले दिन शशि भाई गजरौला से दिल्ली अपनी बाइक से मेरे घर पर दिन में आ पहुँचे, कोठारी जी जयपुर से चलकर सीधे रेलवे स्टेशन पर ही सभी को मिलेंगे। कोठरी जी से मेरी यह पहली मुलाकात होने वाली थी, बाकी साथियों के साथ पहले भी यात्रा कर चुका हूँ।
इस यात्रा में हमको कैलाश कुण्ड का ट्रैक भी करना था। वहां पर रहने व खाने की कोई व्यवस्था नहीं होती इसलिए टेण्ट व स्लीपिंग बैग खुद के ले जाने थे। यात्रा वाले दिन शाम को छह बजे ओला टेक्सी से शशि भाई और मैं द्वारका से सराय रोहिल्ला स्टेशन के लिए निकल पड़े, कोठारी जी साढे सात बजे तक वहां पहुँचने वाले थे। हमारे स्टेशन पहुँचने से पहले कोठारी जी पहुँच चुके थे और सभी को बता भी चुके थे कि हमारी उधमपुर जाने वाली ट्रेन दो नंबर प्लेटफार्म से जाएगी वो वहीँ पर सबकी इन्तज़ारी कर रहे हैं।
स्टेशन पहुँचकर कोठारी जी को फोन लगाया तो दो मिनट में हाज़िर भी हो गए। हालाँकि उनसे ये मेरी पहली मुलाकात थी लेकिन एक क्षण को भी नहीं लगा कि हम पहली बार मिल रहे हैं। उम्र में भी मुझसे काफी बड़े हैं, लेकिन उनका व्यवहार ऐसा था जैसे एक हमउम्र मित्र का रहता है। लगबग नौ बजे अमित भाई भी गुड़गांव से चलकर आ पहुँचे। हमारी ट्रेन भी स्टेशन पर लग चुकी थी। अमित भाई और मेरी सीट एक कूपे में साथ थी जबकि शशि भाई व कोठारी जी की अलग-अलग। फ़िलहाल सभी हमारे ही कूपे में बैठ गए, भोजन का आर्डर भी कर दिया व गप्पें मारते-मारते भोजन का आनन्द लेते हुए उधमपुर की ओर प्रस्थान कर दिया। कल सुबह उधमपुर में रमेश भाई जी नाश्ता व कार के साथ हमारी इन्तज़ारी में वहां खड़े मिलेंगे।
भदरवाह क्षेत्र को वासुकी नाग देवता का क्षेत्र कहा जाता है। महर्षि कश्यप व उनकी धर्मपत्नी के तीन पुत्रों शेषनाग, तक्षक व वासुकी नाग में से एक पुत्र वासुकी नाग को भगवान शिव का भक्त माना जाता है। भगवान शिव सदैव वासुकी नाग को अपने गले में पहने रखते हैं। समुद्र मंथन के समय देवताओं के द्वारा प्रयुक्त रस्सी में वासुकी नाग का का भी वर्णन है। वासुकी नाग इस क्षेत्र के ईष्ट देव हैं और कैलाश कुण्ड उनका निवास स्थान। प्रत्येक वर्ष स्थानीय निवासी कैलाश कुण्ड की यात्रा करते हैं। हिमाचल के भरमौर स्थित मणिमहेश यात्रा के बाद एक दिवसीय कैलाश कुण्ड यात्रा यहाँ की जाती है। उसके बाद भदरवाह स्थित वासुकी नाग मन्दिर में तीन दिवसीय पात मेले का आयोजन किया जाता है। जो कि नाग पंचमी के दिन प्रारम्भ होता है। ये हमारी खुशकिस्मती थी कि जिस दिन पात मेले का समापन होना था उसी दिन हम भी भदरवाह पहुँच रहे थे।
भदरवाह स्थित वासुकी नाग देवता मन्दिर में होने वाले तीन दिवसीय पात मेले का अलग ही महत्त्व है। सोलहवीं शताब्दी में जब सम्राट अकबर ने सभी रियासतों के राजाओं को दिल्ली तलब किया तो भदरवाह के राजा नागप्पा १ भी दिल्ली आ पहुँचे। अकबर के दरबार में तब ये प्रथा थी कि सम्राट को सर झुका के सलाम किये बिना कोई राजा अपनी कुर्सी पर विराजमान नहीं होगा। जबकि राजा नागप्पा अपने इष्ट देव के सिवा किसी के सामने अपना सर नहीं झुकाते थे। जब नागप्पा राजा ने बिना अकबर को सलाम किये अपनी जगह पर विराजमान हुए तो दरबारियों के साथ-साथ सम्राट अकबर को ये बुरा लगा।
अगले दिन राजा नागप्पा को जब दरबार में आना था तो उनको दरबार में प्रवेश करने के लिए एक खिड़की के रास्ते जाने के लिए कहा गया। राजा नागप्पा ने पहले पाँव अन्दर किये फिर बिना सर को झुकाये दरबार में प्रवेश किया। अकबर इससे जब नाराज हो गए तो राजा नागप्पा ने अपने ईष्ट देव वासुकी नाग देव को याद किया। राजा नागप्पा की पगड़ी से अचानक से वासुकी नाग ने अपने दर्शन दिए, जिससे अकबर को अपनी भूल का एहसास हुआ और राजा नागप्पा को ढेर सारे आभूषणों को भेंट कर भदरवाह के लिए विदा कर दिया।
जिस दिन राजा नागप्पा भदरवाह पहुँचे वो दिन नाग पंचमी का था। राजा ने उस दिन सारे आभूषण ग्रामीणों में वितरित करने के लिए एक मेले का आयोजन किया। तब से लेकर आज तक यह प्रथा जारी है। हर नाग पंचमी को पात मेले का आयोजन किया जाता है। तो चलते हैं वासुकी नाग देवता की इस धरती में....... क्रमशः
इस यात्रा वृतान्त के अगले भाग को पढने के लिए यहाँ क्लिक करें.
अगले दिन राजा नागप्पा को जब दरबार में आना था तो उनको दरबार में प्रवेश करने के लिए एक खिड़की के रास्ते जाने के लिए कहा गया। राजा नागप्पा ने पहले पाँव अन्दर किये फिर बिना सर को झुकाये दरबार में प्रवेश किया। अकबर इससे जब नाराज हो गए तो राजा नागप्पा ने अपने ईष्ट देव वासुकी नाग देव को याद किया। राजा नागप्पा की पगड़ी से अचानक से वासुकी नाग ने अपने दर्शन दिए, जिससे अकबर को अपनी भूल का एहसास हुआ और राजा नागप्पा को ढेर सारे आभूषणों को भेंट कर भदरवाह के लिए विदा कर दिया।
जिस दिन राजा नागप्पा भदरवाह पहुँचे वो दिन नाग पंचमी का था। राजा ने उस दिन सारे आभूषण ग्रामीणों में वितरित करने के लिए एक मेले का आयोजन किया। तब से लेकर आज तक यह प्रथा जारी है। हर नाग पंचमी को पात मेले का आयोजन किया जाता है। तो चलते हैं वासुकी नाग देवता की इस धरती में....... क्रमशः
इस यात्रा वृतान्त के अगले भाग को पढने के लिए यहाँ क्लिक करें.
वासुकी नाग देवता मन्दिर - भदरवाह |
खूबसूरत भदरवाह |
भदरवाह |
पात मेला - भदरवाह |
कैलाश कुण्ड |
खूबसूरत सरथल घाटी |
इस यात्रा के सभी वृतान्तो के लिंक इस प्रकार हैं :-
हमेशा की तरह अच्छा लेख । अगली पोस्ट की इंतज़ार में।
ReplyDeleteधन्यवाद महेश जी।
Deleteयात्रा समाप्ति के तुरंत बाद ही पोस्ट आ गई है। बधाई, इतनी जल्दी लिख लेने के लिए।
ReplyDeleteचूँकि यह यात्रा प्रोग्राम हमारे ही ग्रुप पर बना था, सो स्वाभाविक ही होगा कि सभी सदस्य उन लम्हों का आनंद लेना चाहेंगे, जिन्हें वो नेटवर्क की अनुपस्थिति के चलते लाइव नही देख सुन सके।
अभी तो आपकी चिर परिचित लेखन शैली में यह यात्रा शुरू हुई है, उम्मीद है कि आगे की कड़ियों से ट्रेकिंग का रोमाँच भी आना शुरू हो जाएगा!
Thanx for sharing 💐
धन्यवाद पा जी।
Deleteबहुत बढ़िया प्रथम भाग । वाह यात्रा से आते ही लिख दिया ।
ReplyDeleteभदरवाह के बारे में हमारी जानकारी शून्य थी, आपने भी बढ़िया से दी । चित्र और लेख अच्छे लगे ।
धन्यवाद रितेश भाई।
Deleteभदरवाह की ऐतिहासिक जानकारी पढ़कर अच्छा लगा।
ReplyDeleteजितना जान पाया लिख दिया। धन्यवाद कोठारी सर।
Deleteचट मंगनी पट व्याह ।
ReplyDeleteइधर यात्रा ख़त्म और उसकी पोस्ट आ गयीं ।
पल पल की जानकारी के साथ भदरवाह का इतिहासिक पछ पढ़कर अच्छा लगा ।
धन्यवाद किशन भाई।
Deleteबढ़िया यात्रा की बढ़िया शुरुआत.....और उतना ही बढ़िया वर्णन..👍
ReplyDeleteधन्यवाद डॉ. साहब।
Deleteसुंदर बीनू भाई अच्छा लिखा है आपने और इतने जल्दी हमे भद्रवाह की यात्रा करवाने के लिए धन्यवाद अगले भाग के इंतजार में
ReplyDeleteधन्यवाद विनोद भाई।
Deleteबहतरीन लेखन और खूबसूरत चित्रण देखकर लग रहा है कि अगले भाग और भी शानदार होने वाले है। बस जल्दी से डाल दो बीनू भाई।
ReplyDeleteकोशिश तो रहेगी भाई कि आपको ज्यादा इन्तज़ार न करना पड़े। धन्यवाद आपका।
Deleteएक लगभग अनछुई जगह से परिचित कराया है आपने बंधुवर ! तो क्या इस मेले में अब भी उस प्रथा को जीवित रखते हुए किसी वस्तु का वितरण किया जाता है ? आगे इंतज़ार रहेगा बीनू भाई
ReplyDeleteधन्यवाद योगी भाई। राजशाही रही नहीं...हाँ प्रसाद जरूर मिलता है जो हम सभी ने खाया।
Deleteएक पुरानी कहावत से अपनी बात रखता हूँ कि गुरु,गुरु ही रह गया और चेला...
ReplyDeleteऔर 1 गुरु होने के नाते इससे अच्छी अनुभूति कुछ नहीं हो सकती कि आज शिष्य हिन्दी ब्लौगर की दुनिया मे अपने पैरों पर खड़ा हो गया
केवल 1 अनुरोध करना चाहता हूँ कि पोस्ट यात्रा करने से पहले लिख दिया करो तॉकि बाद मे किसी को ये पछतावा न करने पडे कि पहले पता होता तो मै जरूर आता
तिवारी जी का विशेष आभार कि तुम्हें इतने अच्छे ट्रैक के बारे मे बताया,
गुरुदेव चरण कहाँ हैं.... वैसे कभी-कभी मेरा फेसबुक स्टेटस देख लिया कीजिये। यात्रा कार्यक्रम पहले से वहां लिखा होता है।
Deleteबढ़िया शुरुआत.खूबसूरत चित्रण और उतना ही बढ़िया लेखन .आप के साथ ट्रैकिंग का एक और मौका हाथ से निकल गया .
ReplyDeleteधन्यवाद नरेश जी। कोई नहीं...पूरी जिन्दगी पड़ी है। फिर चल पड़ेंगे।
DeleteBeautiful narration.
ReplyDeleteधन्यवाद रागिनी जी।
ReplyDelete