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साँकरी से ओसला...
सुबह छह बजे सोकर उठे, होटल वाले को जगाकर मेन गेट खुलवाया, ढाबे वाले को आवाज दी कि दो चाय कमरे में ही भेज दो। मनु भाई का कल से ही नहाने का बहुत मन था।लेकिन हर बार एक गलती कर देते, मुझसे पूछ बैठते कि "बीनू भाई...नहाओगे क्या ?" मेरा जबाब सुनने के बाद उनका नहाने का जोश ही गायब हो जाता। हालाँकि गर्म पानी उपलब्ध था, लेकिन अपना तो ट्रेक पर नियम है कि "दिल्ली से नहाकर जाओ, और वापिस दिल्ली जा के नहाओ"।
फ्रेश होकर नाश्ता करने ढाबे पर गए, साथ ही आठ परांठे भी आगे के लिए पैक करवा लिए। साँकरी से तालुका की दूरी बारह किलोमीटर है। तालुका तक जाने के लिए शेयर जीप पूछी तो मालूम पड़ा, जायेगी तो सही लेकिन तब जायेगी जब पूरी सवारियां भर जाएंगी। हमको तालुका से चौदह किलोमीटर का ट्रैक करके ओसला तक भी पहुँचना था। इंतज़ार करना उचित ना समझकर ६००/= रुपये में तालुका तक जाने के लिए जीप बुक कर ली।
साँकरी से दो किलोमीटर बाद महा बेकारतम सड़क से सामना हुआ। असल में गोविन्द पशु अभ्यरण् क्षेत्र होने के कारण वन विभाग ने काम चलाऊ रास्ता बनाया, जिस पर स्थानीय निवासी जीप चलाने लगे। अन्यथा पहले यह ट्रैक साँकरी से ही शुरू होता था। धन्य हो इन पहाड़ी ड्राईवरों का, जो इस जैसी सड़कों पर भी बेख़ौफ़ गाडी चला लेते हैं। सांकरी से आगे बढ़िया जंगल के बीच से ये सड़क होकर गुजरती है। बीच में तीन नाले पड़ते हैं, अभी तो पानी कम था, लेकिन बरसात में इन नालों को पार करके गाडी ले जाना सम्भव नहीं है। वैसे बरसात में इस रास्ते पर जीप चलती भी नहीं हैं।
इसी बीच एक जीप तालुका से सांकरी वापिस आ रही थी, जब सामने से गुजरे तो दूसरी जीप में एक ट्रैकर बैठे मिले, वो हर की दून से वापिस आ रहे थे। उन्होंने हमको बताया कि वहां तापमान -३५ डिग्री है, इसलिए संभल कर जाना। उनकी बात सुनकर मनु भाई और मैं अगले तीन दिन तक हँसते ही रहे। एक घण्टे में जीप ने तालुका उतार दिया। जैसे ही चलने लगे मैंने मनु भाई से पुछा कि आप ट्रैकिंग स्टिक साथ लाये थे, वो कहाँ है ? तब मनु भाई को याद आया कि, ढाबे पर नाश्ता करने के बाद वहीँ भूल आये।
जीप के ड्राईवर को बता दिया कि ढाबे में बता देना, जब वापिस आएंगे तो ले लेंगे। और तीन दिन बाद जब हम साँकरी पहुंचे तो स्टिक हमको सही सलामत वापिस मिल भी गयी। तालुका से तुरन्त ही उतराई के साथ ट्रैक शुरू होता है, जो सुपिन नदी के साथ-साथ आगे बढ़ता है। कुछ आगे चलकर दो झाड़ तोड़ ली, दोनों के लिए ट्रैकिंग स्टिक तैयार हो गयी। शुरू में तो रास्ता काफी आसान है। कुछ आगे चलकर बायीं ओर एक पुलिया सुपिन नदी पर बनी मिली जो नदी के दुसरी ओर काफी ऊपर दिख रहे एक गाँव को इस ओर जोड़ती है। गाँव क्या तीन-चार घर बने हुये थे।
कुछ आगे चलकर सुपिन नदी में एक विशेष प्रकार की चिड़िया दिखी, जो तेज बहाव वाले पानी में डुबकी मार कर मछलियों का शिकार कर रही थी। काफी देर तक उसकी गोताखोरी देखते रहे। बहुत कोशिश की फ़ोटो खींचने की, लेकिन बड़ी चंचल थी, मौका ही नहीं दिया। यहीं से हल्की सी चढ़ाई के बाद एक रास्ता दाहिने हाथ को जाता है। जो कुछ ऊपर धातमीर गाँव के लिए निकलता है। हम सीधे ही सुपिन नदी के साथ-साथ चलते रहे, शानदार देवदार के जंगल से रास्ता गुजरता है। लगभग बारह बजे एक छोटे से नाले के ऊपर लकड़ी की पुलिया मिली। उसको पार करते ही एक पुरानी बन्द पड़ी दुकान सी दिखी। भूख लगने लगी थी, यहीं बैठ गए। दो-दो परांठे पानी के साथ खा लिए।
स्थानीय लोग नीचे आते हुए मिल रहे थे। एक ट्रैकर भी मिला, जो इंडिया हाइक के ग्रुप के साथ गया था, लेकिन उच्च पर्वतीय बीमारी (AMS) के कारण उसको आधे से ही लौटना पड़ा। रास्ता आसान ही है, चढ़ाई भी कुछ खास नहीं है। कुछ आगे पहुँचने पर नदी के दूसरी ओर गंगाड गाँव दूर से ही दिखने लगता है। यहाँ पर दो रास्ते मिले एक ऊपर की ओर, दूसरा नीचे की ओर निकल रहा था। दिखने से ऐसा प्रतीत हो रहा था कि नीचे वाला रास्ता गंगाड गाँव के लिए जा रहा होगा, और ऊपर वाला आगे ओसला की ओर। हमको ये मालूम था कि पूरे ट्रैक पर सिर्फ एक ही जगह हमको सुपिन नदी को पार करना है, वो भी ओसला से कुछ पहले।
आवाजाही के निशान नीचे की ओर ज्यादा थे, मैं नीचे की ओर ही चल पड़ा। जबकि मनु भाई तब भी असमंजस की स्तिथि में वहीँ खड़े हो गए। नदी के दूसरी ओर एक लड़की भेड़ों को चुगा रही थी। उसको जोर-जोर से आवाज़ें लगाकर रास्ता पूछा। वो भी उधर से कुछ बोल रही थी, लेकिन नदी के बहाव का शोर इतना अधिक था कि कुछ सुनाई नहीं पड़ा। हारकर इसी नीचे वाले रास्ते पर आगे बढ़ गए। आधा किलोमीटर आगे पहुंचे तो एक चाय की दुकान मिल गयी। सुबह से नौ किलोमीटर चल चुके थे, चाय की सख्त आवश्यकता महसूस हो ही रही थी। दुकान वाले से रास्ते के बारे में पुछा, तो उसने कहा यही सही रास्ता है। दूसरा रास्ता धातमीर गाँव के लिए निकलता है। एक बार फिर से साँकरी से लाये पराँठे खोल लिए, और तवे में गर्म भी करवा लिए। चाय के साथ डट कर पराँठे खाये गए।
गंगाड गाँव ठीक सामने नदी के दूसरी ओर बसा है। यहीं पर ये ढाबे वाले एक होम स्टे बनवा रहे हैं। इस अप्रैल तक बन कर तैयार भी हो जाएगा। आधा घण्टा आराम करने के बाद आगे बढ़ चले। थोडा ऊपर पहुंचे थे कि फिर से दोराहा मिल गया। मनु भाई ऊपर की ओर जाने लगे, वहीँ पास के घर में एक बुजुर्ग महिला ने चिल्ला कर और ऐसा लगा कि डांटकर, मनु भाई को कहा "ऐ... नीचे को जा", एक बार तो हम दोनों आश्चर्यचकित हो गए। फिर जोर से हंसी भी छूट पड़ी।
अभी तो ये घाटी पतझड़ के मौसम की वजह से सूखी-सूखी सी ही नजर आ रही थी, लेकिन निश्चित रूप से बरसात के बाद यहाँ की खूबसूरती शानदार होती होगी। गंगाड से ओसला की दूरी पांच किलोमीटर है। लगभग तीन किलोमीटर के बाद ओसला दिखना शुरू हो जाता है। हम आपस में बातचीत कर रहे थे कि ओसला में कहाँ रुकेंगे ? दोनों की राय यही थी कि हर की दून वन विभाग गेस्ट हाउस के ब्यवस्थापक भी ओसला गाँव के ही हैं, उन्ही के घर रुकेंगे। और कल उन्ही को आगे अपने साथ हर की दून भी ले जाएंगे।
आराम से चलते जा रहे थे, तभी एक सज्जन पीछे से हमारे साथ चलने लगे। उनसे बातचीत शुरू हुयी तो मालूम पड़ा वो ओसला के ही निवासी हैं। रुकने खाने आदि के लिए जो भी बातचीत करनी थी ये सारी जिम्मेदारी मनु भाई की थी। वो उन सज्जन से बातचीत करने लगे, तो उन्होंने अपने घर में ही ठहरने के लिए आमंत्रित किया। ये भी बताया कि सभी बुनियादी सुविधाएं आपको हमारे घर पर मिलेंगी। गाँव के होम स्टे में मुझे जो सबसे जरुरी चाहिए होता है वो है, टॉयलेट की उपलब्धता। बाकी सो तो जमीन पर भी जाता हूँ।
जब उन्होंने बताया कि टॉयलेट है तो फिर सोचने की कोई बात ही नहीं थी। उनसे किराये के लिए बार-बार पूछते, तो उनका जबाब होता कि जो मन आये दे देना। और आप मेहमान हो नहीं भी दोगे तो कोई बात नहीं। आखिर में किराया भी मनु भाई ने ही तय कर लिया, डेढ सौ रुपये एक रात का। हमको दो रात रुकना था। खाने के लिए उन्होंने पुछा तो मजाक में हम बोल पड़े, तीतर खिला देना।
ओसला के ठीक नीचे सुपिन नदी पर लकड़ी का पुल बना है। इस पुल को पार करके ओसला के लिए रास्ता जाता है। यहीं पर से दो रास्ते हर की दून के लिए निकलते हैं। एक सीमा होकर, दूसरा ओसला होकर। सीमा असल में कोई गाँव नहीं है। यहाँ पर गढ़वाल मंडल विकास निगम का गेस्ट हॉउस है, और सीजन के लिए एक ढाबा। चूँकि हमारी गेस्ट हाउस की कोई बुकिंग नहीं थी, और होम स्टे ओसला में ही मिलना था, इसलिए हम बायें सुपिन नदी को पार करके ओसला के लिए चल पड़े।
नदी पार करते ही चढ़ाई शुरू हो जाती है। गाँव तो दिखता रहता है, और लगता भी ऐसा है कि, बस थोड़ी ही दूरी पर है, अभी पहुँच जाएंगे। लेकिन हकीकत में ये अभी तक की सबसे अच्छी चढ़ाई थी। थकान भी होने लग गयी थी, जिन सज्जन के घर रुकना था वो भी साथ-साथ ही चल रहे थे। आराम से चढ़ते गए और पाँच बजे ओसला पहुँच गए।
जौंसार बावर क्षेत्र के गांवों में ऐसा महसूस होता है कि, यहाँ एक अलग ही दुनिया बसती है। लकड़ी की इस क्षेत्र में कोई कमी नहीं है। और ईंट, सीमेंट यहाँ तक पहुंचा पाना एक दुर्लभ स्वप्न ही है। पूरा गाँव ही लकड़ी के घरों का बना है। छोटे-छोटे बच्चे मिलते तो नमस्ते करते और बोल पड़ते "सर मिठाई"। सबको टॉफियां देते हुए आगे बढ़ जाते। महिलाओं और पुरूषों के परिधान भी बाकी गढ़वाल क्षेत्र से अलग ही है। पूरा गाँव मुख्यतः खेती, भेड़ पालन और पर्यटन पर ही निर्भर है। एक महिला भेड़ की ऊन से कोट बनाती मिली। कुछ देर रूककर उनसे जानकारी भी ली।
गाँव में बिजली अभी तक नहीं पहुंची, हालांकि सुपिन नदी पर एक छोठा सा पनचक्की के प्रोजेक्ट पर काम चल रहा है। जिससे इन सीमावर्ती तीन-चार गाँवों को भविष्य में बिजली मिलने लगेगी। गाँव में बाहरी दुनिया से संपर्क करने के लिए एक सेटेलाइट टेलीफोन बूथ भी है। गाँव के बीच से होते हुए हम अपने रात्रि निवास पर पहुँच गए। जाते ही पाँव धुलने के लिए गर्म पानी मिल गया, और गर्मागर्म चाय भी आ गयी। बलबीर जी, जिनके घर रात्रि विश्राम करना था, उनके कुल छह बच्चे हैं। दो लड़कियों की शादी हो चुकी, बड़ा लड़का देहरादून में कालेज में पढाई कर रहा है, और दो बेटे पढाई के साथ-साथ भेड़ों के ब्यापार में उनकी मदद कर रहे हैं।
उनके पास कुल मिलाकर ९० भेडें हैं। सर्दियों का समय है तो आजकल पूरे गाँव की भेडें मसूरी के जंगलों में गयी हैं। गर्मियों में वापिस इसी क्षेत्र में आ जाएंगी। कुल मिलाकर पूरे गाँव की १५०० से ज्यादा भेड़ों का झुण्ड हो जाता है। जिस भी क्षेत्र में उनको जाना होता है, वन विभाग और उस क्षेत्र की ग्राम पंचायत से कुछ समय के लिए अनुमति लेकर, भेड़ों को साल भर ऐसे ही इधर से उधर ले जाते हैं। इसके लिए इन लोगों को जंगल खरीदने की फीस भी देनी होती है।
इस क्षेत्र में पाये जाने वाले कुत्ते बहुत प्रसिद्ध हैं। भेड़ों की जंगली जानवरों से रखवाली करने के लिए इन कुत्तों को विशेष रूप से तैयार किया जाता है। मजाल क्या है कि घने जंगलों में बाघ या कोई जानवर इन कुत्तों के रहते भेड़ों पर हमला कर दे। एक छोठा सा पिल्ला घर के बाहर खेल रहा था। मैंने बलबीर जी से पुछा इसकी कीमत कितनी होगी ? उन्होंने बताया आठ से दस हज़ार तक।
आजकल पूस का महीना चल रहा है। पूरे महीने गाँव में रात को नौजवान लड़के लड़कियां मुख्य चौक पर एकत्र होकर "झुमेलो" गाते हैं। साथ ही रिवाज है कि हर परिवार वाले एक भेड़ को मारकर उसका मीट अपनी ब्याहता बेटी के ससुराल भेजते हैं। और नजदीकी रिश्तेदारों को उस दिन अपने घर पर भोजन के लिए भी आमंत्रित करते हैं। आज बलबीर जी के घर में भी वही दिन था। जब उन्होंने रात्रि भोजन के बारे में पुछा तो ये बात भी बतायी। मेरी तो अच्छी-खासी दावत का इंतज़ाम हो गया, मनु भाई के लिए स्थानीय राजमा की दाल बन जायेगी।
इस क्षेत्र की राजमा बहुत प्रसिद्द हैं, और मुख्यतः राजमा ही उगाई जाती है। फसल के बाद स्थानीय निवासी राजमा को जब नीचे बाजार में ले जाते हैं तो एक किलो राजमा के बदले तीन किलो चावल की अदला बदली करके वापिस लाते हैं। थकान काफी हो रही थी, थोडा सा सोमरस मैं इसी थकान के चलते साथ लेकर चलता हूँ। बलबीर जी को साथ देने के लिए निमंत्रित किया तो उन्होंने तुरंत उठकर पहले कमरे के दरवाजे अन्दर से बन्द करके कुण्डी लगायी और फिर कहा हाँ थोडा सा ले लूंगा। मैंने उनसे पुछा इतना डर किस बात का ? फिर उन्होंने बताया कि यहाँ कच्ची शराब घर-घर में बनने लगी थी। मर्द लोग दिन भर नशे में चूर रहते थे। गाँव की महिलाओं ने तंग आकर समूह बनाया और शराबियों की पिटाई के साथ-साथ जुर्माने का नियम भी बना दिया। अब अगर गाँव के अन्दर कोई गाँव निवासी शराब पिया हुआ पाया जाता है तो उसपर दस हज़ार रूपये और एक भेड़ का जुर्माना है। डर-डर कर बलबीर जी ने थोडा सा लिया, स्वादिष्ट भोजन भी आ चुका था। डट कर लुफ्त लिया।
कल सुबह की यात्रा के बारे में विमर्श किया तो तय हुआ कल सुबह पौ फटते ही हर की दून के लिए निकल पड़ेंगे। और अँधेरा होने से पहले वापिस ओसला आ जाएंगे। ओसला से भी हर की दून की दूरी लगभग १४ किलोमीटर ही है, ऐसे में आने-जाने के लिए समय तो लगना ही था। बलबीर जी को भी अपने कार्यक्रम से अवगत करवाकर, और दिन के भोजन के लिए आठ पराँठे पैक करके देने को कहकर सो गए। कल जबरदस्त टांग तुड़ाई होने वाली है, इसलिए जितना अधिक आराम कर लें वही अच्छा रहेगा।
क्रमशः.....
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तालुका |
तालुका से आगे |
मनु भाई |
आओ चलें उस पार |
खूबसूरत हर की दून घाटी |
दिन का भोजन |
गंगाड में चाय की दुकान |
सुपिन ओसला के रास्ते से |
ओसला |
भेड़ की ऊन से कोट बनाती महिला |
लकड़ी के घर |
गाँव का मंदिर |
रात रुकने का ठिकाना |
बढ़िया बीनू भाई....मज़ा आ गया
ReplyDeleteधन्यवाद डॉ साहब।
Deleteकाफी मजा आया आपका यात्रा वृतांत पढ़कर।
ReplyDeleteजगह अच्छी है, सर्दियो के मौसम की वजह से हरीयाली गायब दिख रही है, वैसे सितम्बर में यहां पर बहुत खूबसूरती रहती होगी।
जी सचिन भाई, वैसे इस घाटी की खूबसूरती तो डामटा से ही शुरू हो जाती है।
Deleteबहुत ही मौलिकता लिए हुए लेख है ! वो भेड को मारकर ब्याहता बेटी के घर पहुँचाना और दावत ! मजा आ गया आपका तो बीनू भाई ! ये पूस का महीना था तो वो प्रोग्राम चल रहा था , एक दो फोटु वहां के भी होते तो बढ़िया रहता !!
ReplyDeleteयोगी भाई धन्यवाद। "झुमेलो" मैंने बहुत करीब से देखा हुआ है, क्योंकि खुद मेरे गाँव में एक समय गाया जाता था। हां फ़ोटो खींचने के लिए जाना चाहिए था, लेकिन रात को १२ बजे शुरू होना था, फिर कल हमको ३० किलोमीटर का ट्रैक करना था, इसलिए आराम भी जरुरी था। और सच कहूँ तो ठण्ड इतनी ज्यादा थी कि हिम्मत भी नहीं हुयी रजाई छोड़ने की। :)
Deleteहरियाली तो एक दम गायब ही है। बाकि दावत वाला किस्सा मस्त है
ReplyDeleteधन्यवाद हर्षा।
Deleteबहुत खूब vijay, मजा आ गया पढ कर.
ReplyDeleteवाह पहली बार मेरे यार का कॉमेंट आया है। :)
Deleteमजेदार यात्रा चल रही है बीनू,दारू वाला किस्सा बढ़िया है। हम शहरी महिलाओ से ज्यादा स्ट्रांग है पहाड़ की महिलाये नमन है उन सारी महिलाओ को जो इतना परिश्रम करती है अपने घर परिवार के लिए।
ReplyDeleteगलत बात बीनू, नहाने से तो सारी थकान उत्तर जाती है और तुम दिल्ली आकर नहाते हो । 👌☺
:) धन्यवाद बुआ।
Deletetitar khaya ki vese hi wapas aye ???
ReplyDeleteतीतर तो नहीं, बकरा जरूर खाया :)
Deleteयात्रा वृतांत पढ़कर अच्छा लगा
ReplyDeleteधन्यवाद संजय जी।
Deleteहमारे तो पल्ले सोमरस ही पड़ा :) बाकी तो सफर जोरदार चल रिया है।
ReplyDeleteधन्यवाद ललित सर। :)
Deleteवाह मजा आ गया ...साँकरी से ओसला गाँव की ट्रेक यात्रा पढकर.....
ReplyDeleteफोटो ने भी इस यात्रा में सजीवता का अहसास करा दिया
धन्यवाद रितेश भाई।
DeletePahadis are such a hardworking lot. Massive respect for them.
ReplyDeleteजी, खासकर जौंसार क्षेत्र तो मेहनतकश लोगों का क्षेत्र है ही।
Deleteभाई रास्ता बहुत खराब था लेकिन सफर मजेदार रहा ।।
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