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अगोडा से डोडीताल
अगोडा में कल दो रावत जी लोगों से मुलाकात हुयी थी, बड़े रावत जी डोडीताल गेस्ट हाउस के केयर टेकर और छोटे रावत जी अगोडा गेस्ट हाउस के, बड़े रावत जी का सेवा निवृत होना कागार पर था, 30 जून को वे वन विभाग से सेवा निवृत हो जाएंगे। सुबह 5.30 पर बड़े रावत जी ने चाय के साथ हमको बड़े प्यार से जगाया, और जब चाय बिना मांगे ही सुबह सुबह कमरे में ही आ जाये तो कहना ही क्या, पहाड़ का यही सेवा भाव दिल को छू जाता है। अगोडा समुद्र तल से लगभग 2100 मीटर की ऊंचाई पर बसा है, और डोडीताल 3100 मीटर। दूरी 16 कि.मी. के आसपास है, और बीच में पूरा घना बुरांश का जंगल।
रोजाना शाम को बारिश हो जा रही थी तो सबसे बड़ा डर यही सता रहा था कि कहीं आज भी बारिश ना हो जाये, मुझे भीगने से बड़ा डर लगता है, अगर गीले कपडों में 10 मिनट भी रहता हूँ तो निश्चित रूप से बुखार आ जाता है, जो मैं कतई नहीं चाहता था। मैं जब भी ट्रैक पर होता हूँ तो दिनचर्या स्वतः ही बदल जाती है, दिल्ली में रात को 12 बजे से पहले सोना नहीं, और सुबह 8 बजे से पहले उठना नहीं, लेकिन ट्रैक पर जल्दी सोना और जल्दी उठना खुद से ही हो जाता है। हम दिल्ली से नूडल्स और सूप के कुछ पैकेट लाये थे और जो भी खाद्य सामग्री थी, सब रावत जी लोगों के सुपुर्द कर दी। क्योंकि दोनों रावत जी हमारे साथ ही डोडीताल चल रहे थे, बलूनी जी भी आना चाहते थे लेकिन उनको आज रिश्तेदारी में शादी पर जाना था, फिर भी उन्होंने कहा कि शुरू के 1 घंटे तक वो हमारे साथ चलेंगे, थोडा सा कल सचिन के स्वास्थ्य की वजह से चिंतित थे, अगर निश्चिन्त होंगे तो फिर वो लौट आएंगे। जल्दी से नित्यकर्म से निवृत होकर नाश्ता किया, कल भूखे पेट चलने का नतीजा भुगत चुके थे, इसलिए आज ठूंस ठूंस के नाश्ता किया।
आगे खाने को कुछ भी नहीं मिलेगा इसलिये रोटी सब्जी रावत जी लोगों ने पैक करके रख दी, दिन के भोजन के लिए। साथ ही हमको हिदायत दी कि सिर्फ आज रात के लिए ही कपडे रखो बाकी सब यहीं छोड़ दो, सही भी था कल यहीं वापिस आना था तो क्यूँ बिना बात के लिए बोझा ढोया जाए। मैं जब भी ट्रैक पर जाता हूँ तो इसी परिस्तिथि को देखते हुए हमेशा 2 बैग ले जाता हूँ। बड़े बैग के अंदर छोटा बैग डाल देता हूँ, ट्रैकिंग के बेस पॉइंट पर बड़ा बैग और ऊपर जिस भी सामान ने काम नहीं आना है उसको छोड़ देता हूँ, पहाड़ों में आप किसी भी दुकान पर चाय पीजिये और अपना बैग रखवा लीजिये, 1 हफ्ते बाद भी वापिस मांगेंगे तो सही सलामत मिलेगा। छोटे बैग में पानी की बोतल और रात को ठण्ड से बचने की जरुरी चीजें रखकर ठीक 6.30 बजे हम डोडीताल के लिए निकल पड़े।
बलूनी जी हमारे साथ कुछ आगे तक चल रहे थे, बड़े रावत जी ने अब डोडीताल ही रुक जाना था, क्योंकि ट्रैकिंग सीजन का आगाज हो चुका है, और छोटे रावत जी कल हमारे ही साथ वापिस आने वाले थे। दोनों रावत जी लोगों ने कहा आप लोग चलो हम लंच वगेरह पैक करके आते है, सचिन मैं और बलूनी जी चल पड़े। गेस्ट हाउस से थोड़ी उतराई के बाद आधा कि.मी. की हल्की सी चढ़ाई है, बुरांश के पेड़ यहीं से शुरू हो जाते हैं। सूर्यदेव भी प्रकट हो ही रहे थे, रास्ते के किनारे ओस की वजह से जो गीलापन होता है उसमें जानवरों के पैरों के निशान भी मिलने लगे। हल्की सी चढ़ाई के बाद करीब 2 कि.मी. तक ढलान सा है फिर एक बड़ा सा नाला आता है, नाले के उस पार 3-4 घर बने हैं, ये जगह बेब्रा गेट है। नाले के ऊपर एक मोटे पेड़ के तने को दोनों छोर तक लिटाकर उसके ऊपर एक मजबूत सी रस्सी को बांधकर कामचलाऊ पुल को बना दिया गया है, पानी भी काफी था, वैसे अभी तो पानी से होकर भी पार किया जा सकता है लेकिन बरसात या जब इसका जलस्तर बढ़ जाता होगा तो फिर यही कामचलाऊ पुल एक मात्र साधन है।
यहाँ पर ली गयी एक फ़ोटो से जुड़ा वाकया है, ट्रैक से आने के बाद मैंने अपने फेसबुक पर इसी पुल की फ़ोटो डाल दी। एक बुजुर्ग फेसबुक मित्र थे, जो पत्रकार भी हैं, उन्होंने इस फ़ोटो को डाउनलोड कर अपने फेसबुक अकाउंट से एक पोस्ट डाल दी कि "पहाड़ों पर पुलों का ये हाल है और बातें करते हैं विकास की" मैंने उनकी इस पोस्ट पर कॉमेंट कर दिया कि ये फ़ोटो मैंने ही खींची है फ़लाँ फ़लाँ जगह पर और इस डेट को, साथ ही वहां की परिस्तिथि के बारे में भी विस्तार से बता दिया कि जब यहाँ कोई रहता ही नहीं तो पुल किसके लिए बनाना? हालांकि मैं राजनितिक कॉमेंट से दूरी ही बनाये रखता हूँ, बस फिर क्या था पत्रकार महोदय का गुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ गया, मेरे को सिर्फ इतना ही कहने पर घमंडी और पता नहीं किन किन उपाधियों से नवाज दिया।
खैर..... मैं आराम से जब इसके पार हो गया तो कैमरा लेकर खड़ा हो गया, कि सचिन को देखता हूँ कैसे पार करेगा। मुझे मेरी उम्मीद के मुताबिक शॉट्स तो नहीं मिले पर सचिन की पतली हालत देख के मजा आया। बेब्रा में एक दो चाय की दुकान भी हैं और कैंपिंग ग्राउंड भी। शायद रात को रुकने के लिए कमरा भी मिल जाता है, वो भी ट्रैकिंग सीजन में, जिनके पास खुद के टेण्ट होते हैं वो बेब्रा में ही रात्रि विश्राम करते हैं। थोड़ी देर रुक कर आगे बढ़ चले। बेब्रा से डोडीताल ट्रैक की असली चढ़ाई शुरू हो जाती है, एक शार्ट कट भी बना है लेकिन हमने इसके बजाय लंबा रास्ता चुना क्योंकि सीधी चढ़ाई से थकान ज्यादा महसूस होती है, जंगल और जड़ी बूटियों का इलाका शुरू हो चुका था, बलूनी जी ने पत्थर पर उगे एक पत्ते को तोड़कर बताया कि ये पत्ता चट्टी है, चट्टान पर उगता है और कैंसर के लिए बहुत उपयोगी है। मुझे ऐसी जानकारी प्राप्त करने का बड़ा मन करता है। क्योंकि अगर कभी जंगल में फंस जाए तो प्रकृति ने सब कुछ वहां रखा है, बस आपको मालुम होना चाहिए कि किस वक़्त आपको किस चीज का उपयोग करना है।
आराम से बातें करते करते बेब्रा के ठीक ऊपर पहुंचे, एक पानी का नल भी लगा है, और यहाँ से बलूनी जी ने हमसे विदा ले ली, कुछ जरुरी हिदायतों के साथ। हमको रास्ता समझाकर बलूनी जी वापिस चल दिए, रावत जी लोग रास्ते में कहीं ना कहीं हमको पकड़ ही लेंगे, अब हमारा अगला टारगेट था छतरी। चढ़ाई तो जारी थी जंगल भी शुरू हो चुका था, पूरा बुरांश का साम्राज्य फैला है दायीं तरफ दयारा बुग्याल और ठीक नीचे अस्सी गंगा वाकई में प्रकृति क़ी इसी ख़ूबसूरती को देखने के लिए तो ट्रेक्कर यहाँ आते हैं। रास्ता अच्छा बना है, जंगल में भटक नहीं सकते, करीब 1 कि.मी. आगे पहुंचे थे कि रावत जी लोग पीछे से पहुँच गए, वो आगे ये कह कर निकल गए कि छतरी में इंतजारी करेंगे। सुन्दर नजारों को देखते हुये छतरी तक चढ़ गए, असल में इस जगह का नाम धारकोट है, यहाँ पर आराम करने के लिए एक छतरीनुमा टिन शेड बना है तो स्थानीय निवासी इसे छतरी के नाम से ही बुलाने लगे।
काफी देर तक यहाँ आराम किया, बैग नीचे रखकर इसके चबूतरे पर पसर गया, मजा आता है लेटे लेटे पहाड़ों की सुंदरता को देखने में। छतरी से जब आगे बड़े तो पहली बार घुरल (हिरन की प्रजाति) दिखे, सुबह सुबह तसल्ली से घास चुग रहे थे, हमारी आहट पाते ही कुलांचे मारके भाग खड़े हुये। ये घुरल बाहुल्य इलाका है, मैंने भी पहली बार यहीं देखे। बुरांश के फूल खिले हुए थे ऐसे में इन जंगलों की सुंदरता देखते ही बनती है। बुरांश के फूल नीचे गिरे रहते हैं तो ऐसा लगता है हमारे चलने के लिये प्रकृति ने फूलों का कार्पेट बिछा रखा हो। करीब 2 कि.मी. की चढ़ाई के बाद हल्की हल्की उतराई है, फिर एक छोटा सा नाला आता है, थकान भी महसूस होने लगी थी, छक करके पानी पिया और ठन्डे पत्थरों पर लेट गया। ये जगह कचेरु थी, सचिन भी पस्त होने लगा था। कचेरु से एक रास्ता दाहिने को दयारा के लिए निकल जाता है, वैसे दयारा बुग्याल जाने के लिए ट्रैकर इस रास्ते का कम ही इस्तेमाल करते हैं, ज्यादातर लोग दूसरी तरफ बरसू गांव से ही वहां जाते हैं।
भूख भी लगने लगी थी, रावत जी लोगों ने कहा मांझी में खाना खाएंगे वहां तक ही ज्यादा चढ़ाई है उसके बाद रास्ता भी आसान है। कचेरु से फिर चढ़ाई शुरू हो जाती है, और इसी भाग को डोडीताल ट्रैक का कठिनतम चढ़ाई वाला भाग कहें तो गलत नहीं होगा। मौसम सुहावना बना हुआ था बुरांश अपनी सुंदरता की चरम पर थे, घुरल हमारे चारों तरफ घूम रहे हों, और मोनाल हमको देखते ही उड़ जाये इससे बाकी क्या सुंदरता चाहिये, अपनी इन्हीं खूबियों की वजह से डोडीताल ट्रैक को बेहतरीन जंगल ट्रैक की लिस्ट में शामिल किया जाता है। कचेरु से आगे बढे तो ऊपर धार तक चढ़ाई साफ़ दिखाई दे रही थी, बुरांश के पेड़ों ने पूरा समां बाँधा हुआ था। ऐसे जंगलों से, प्रकृति के सानिध्य में से बाहर निकलने का मन ही नहीं करता। करीब 2 कि.मी. की खडी चढाई के बाद कुछ सीधा चलकर छोटी मांझी आ जाता है, छोटी माँझी में कैंपिंग ग्राउंड भी है और खूब हरियाली भी। यहाँ से आधा कि.मी. आगे चलकर माँझी नजर आने लगता है, छोठी माँझी से माँझी के ठीक नीचे तक सीधा रास्ता है, फिर हल्की सी चढ़ाई के बाद माँझी आता है।
माँझी में 6-7 छानी (झोपड़ियां) बनी हैं, गर्मियां शुरू होते ही जब बर्फ पिघल जाती है तो गुज्जर लोग अपनी भेड़ बकरियों को ऊपर ले आते हैं, ट्रैकिंग सीजन भी होता ही है तो ढाबा भी खोल लेते हैं, रात्रि विश्राम के लिए बिस्तर भी दे देते हैं, जिससे उनकी कुछ आमदनी भी हो जाती है। अभी माँझी वीरान पड़ा था, कुछ जानवरों के अवशेष भी पड़े दिखे, आज सिर्फ हम 4 ही यहाँ थे। भूख बहुत जोरों से लग रही थी, ऐसे में आलू की सब्जी, रोटी, नींबू और हरी मिर्च मिल जाये तो कहना ही क्या। पानी की भी उपलब्धता यहाँ पर है, वैसे डोडीताल ट्रैक पर हर 2-3 कि.मी. पर पानी मिलता रहता है, पानी की कहीं कोई दिक्कत नहीं आती। डट कर खाना खाया और यहीं पर पसर गया, रावत जी लोगों ने बताया कि अब रास्ता आसान है, तुम लोग आराम से आओ और वो आगे चले गए। काफी देर तक ऐसे ही जमीन में लेटा रहा बड़ा आनंद आ रहा था, प्रकृति ने चारों और यहाँ सुंदरता बिखेरी है, जितना आँखों में समा सकते हो समा लो।
खाना खाकर सचिन के अंदर भी फिर से ट्रेकर जाग उठा तो आगे बढ़ चले, बर्फ के मौसम के निशान मिलने लगे, बड़े बड़े पेड़ रास्तों में बर्फ़बारी के कारण गिरे पड़े थे, विभिन्न प्रकार की रंग बिरंगी चिड़िया दिखने लगी, मोनाल तो पता नहीं कितनी बार दिखी। सुनसान जंगल में पक्षियों की आवाज की नक़ल करने में बड़ा मजा आता है। एक तो अजीब ही था जितनी जोर से हम उसकी नक़ल करते वो हमसे भी जोर से जबाब देता, बस दिखा नहीं कहीं छुपा बेठा था, बड़ा मजा आ रहा था उससे कम्पटीशन करने में, हम थक गए चिल्लाते चिल्लाते लेकिन वो चुप नहीं हुआ, हार मानकर आगे बढ चले, करीब 1 कि.मी. आगे पहुंचे ही थे कि एक बड़ा सा नाला सीधे ग्लेशियर से बहता हुआ आ रहा था, रावत जी लोग उसका बहाव देखकर वहीँ पर हमारे लिए रुक गए, ये नाला अपने साथ बड़े बड़े पेड़ भी बहाकर लाया था, हल्का सा पानी को छूकर देखा तो शरीर में करंट दौड़ गया, पानी के ऊपर जो पेड़ के तने थे इनसे होकर पार किया, भला हो नाले का जो उसने खुद ही पुल की ब्यवस्था कर दी थी, सचिन को रावत जी ने पार करवाया, मैं सुबह से ऐसी जगहों पर जल्दी से पार होकर दूसरी और खड़ा हो जा रहा था, कैमरा भी तैयार रख रहा था कि कब सचिन पानी में लुढ़के और मैं फ़ोटो खींचू लेकिन मौका हाथ नहीं आया।
यहाँ से आधा कि.मी. बढे ही थे कि दूसरे नाले से सामना हो गया, ये बेदर्द नाला था अपने साथ कोई पेड़ बहाकर नहीं लाया था, चुपचाप जूते उतारे और सांस अंदर की और खींचकर नाले में उतर गया, नाला पार करके लगा कि पांव आधे से गायब हो गये, तलुवों पर मालिश करके वापिस जूते पहन लिए, सचिन बिना जूते उतारे ही पानी में घुस गया जिसका खामियाजा उसको डोडीताल पहुँचने तक भुगतना पड़ा। कभी भी ट्रैक पर अपने कपडे या जूते भीगने नहीं देने चाहिए, जब तक कि कोई और उपाय ना बचा हो। अगर जूते उतार के नाला या नदी पार की जा सकती है तो उतार लेने चाहिए, हमेशा कपड़ों को या जूतों को सूखा रखने की कोशिश करनी चाहिए। नाला पार करते ही बर्फ का एक 10 मीटर टुकड़ा जमा हुआ मिला, मुझे तो आदत है सर्र से पार हो गया, पार हो के फिर कैमरा तैयार रखा कि कब सचिन लुढ़के, लेकिन गंभीरता को देखते हुए रावत जी ने सचिन का हाथ पकड़ कर पार करवा लिया, मुझे फिर निराशा ही हाथ लगी, असल में मैं पूरे रास्ते सचिन को चिढ़ाते हुए आ रहा था कि "बज गयी बैंड ?" तो उसका सबूत चाहिए था, अगर कुछ ज्यादा ही खतरा होता तो फिर तो साथी की मदद सबसे पहले करनी होती है।
यहाँ पर से भैरव मंदिर तक खड़ी चढ़ाई है। बर्फ का टुकड़ा जैसे ही पार किया एक बड़ा सा पेड़ अपने साथ खूब सारा मलबा लेकर रास्ता रोके पड़ा था। इसके नीचे से एक सुराख़ सा बना था इसके अंदर घुस कर पार जाना था, पहले पानी फिर बर्फ और अब ये पेड़ 100 मीटर में ही 3-3 बाधाएं, खैर इसको भी पार किया और चढ़ाई चढ़नी शुरू कर दी। ये इस ट्रैक की आखिरी चढ़ाई थी। ऊपर धार पर भैरव मंदिर तक धीरे धीरे चढ़ते हुये पहुँच गए। यहाँ पर काफी देर तक आराम किया क्योंकि अब हल्की सी उतराई ही रह गयी थी तो मन में निश्चिन्तता सी आ गयी थी कि अब बारिश हो भी जाये तो ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा। थकान के मारे बुरा हाल हो गया था, सुबह 6.30 से जो चलना शुरू किया था अभी दिन के 3.30 बज गए हैं और चले ही जा रहे हैं। पांव के तलुवों में दर्द शुरू हो गया था।
सचिन को तो टॉफियां चुसवा चुसवा कर और ग्लूकोज़ पिला पिला कर यहाँ तक ले ही आया था। भैरव मंदिर करीब 2950 मीटर की ऊंचाई पर है और डोडीताल 3050 मीटर, ये वन विभाग के वहां लगे बोर्ड पर अंकित था, जबकि भैरव मंदिर से लगातार उतराई ही है, फिर डोडीताल ज्यादा ऊंचाई पर कैसे हो गया ये समझ नहीं आया। काफी देर आराम करने के बाद आगे बढे, बर्फ की वजह से रास्तों पर खूब सारे पेड़ गिरे पड़े थे, कभी उनको लांघ कर कभी उनके नीचे से होकर धीरे धीरे चलते रहे। एक लंगूरों का झुण्ड ऊधम मचा रहा था, बिलकुल सफ़ेद और मुँह काला, अमूमन निचली पहाड़ियों पर लंगूर इतने सफ़ेद नहीं होते ये तो पूरे गोरे चिट्टे थे। हमको देखकर पूरा झुण्ड नीचे की तरफ भाग खड़ा हुआ। घना जंगल है पूरा शांत अस्सी गंगा के तेज बहाव की आवाज पूरे रास्ते सुनायी पड़ती रहती है। आराम आराम से बढ़ते गए बस कब पहुंचे यही दुआ करते हुए डोडीताल जैसे ही सामने दिखा आवाक रह गया.........
(डोडीताल में बिताये पल और वापसी अगले भाग में.......)
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बेबरा गेट |
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बेबरा गेट |
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बेबरा गेट |
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बेबरा गेट |
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पत्ता चट्टी घास |
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बलूनी जी सचिन के साथ |
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अस्सी गंगा घाटी |
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अस्सी गंगा घाटी |
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छतरी |
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बुरांस की यही बात अच्छी लगती है |
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छोटी मांझी |
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मांझी |
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मांझी में भोजन |
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सचिन को नाला पार करवाते रावत जी |
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पहाड़ में बहता अमृत |
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रास्ता गायब |
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कब लुढ़के |
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सचिन रावत जी लोगों के साथ |
इस यात्रा के सभी वृतान्तो के लिंक इस प्रकार हैं:-
वाह! डोडिताल का इंतज़ार रहेगा मुझे!
ReplyDeleteजल्दी ही ख़त्म होगा प्रजापति जी। धन्यवाद।
DeleteMaza aa gaya padh kar , dodital ka pic nahi dala ?
ReplyDeleteधन्यवाद सेमवाल जी। अगले भाग में शुरुवात वहीँ से होगी।
Deleteहमेशा की तरह लाज़वाब।
ReplyDeleteहमेशा की तरह धन्यवाद बबलू ओह्ह ओम भाई। :)
DeleteBadhiya
ReplyDeleteधन्यवाद मनु भाई।
Deleteआपके साथ यात्रा करने का आनन्द आ रहा है।
ReplyDeleteअगली कड़ी का इंतज़ार रहेगा।
धन्यवाद कोठारी सर।
Deleteबेहतरीन यात्रा, हर पल रोमांचित करने वाला लेख।
ReplyDeleteधन्यवाद सचिन भाई।
Deleteउफ्फ्फ्फ़ !!! खतरनाक रास्ते पर भी तुम्हारी मजे है बीनू
ReplyDeleteहा हा हा जी बुआ।
Deleteमज़ा आ गया बीनू भाई ,शब्दों की चासनी में लपेटकर जिस तरह आपने वर्णन किया है ऐसा लगा जैसे हम आपके साथ ही हैं |
ReplyDeleteऔर मेरे को आपका कॉमेंट पढ़ के मजा आ गया रूपेश भाई। धन्यवाद।
Deleteबेहतरीन यात्रा, हर पल रोमांचित करने वाला लेख। पुल ( गेट ) यहां से देखने पर ही खतरनाक लग रहा है ! शानदार फोटो
ReplyDeleteधन्यवाद योगी भाई।
Deleteखतरनाक....रोमांचक....साहसिक यात्रा
ReplyDeleteधन्यवाद डॉ साहब।
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