शिन्गरा योकमा से ग्याल्पो
दिनांक : 15-1-2018
मुंह पर कुछ ठंडा-ठंडा सा लगा तो आंख खुल गई, हाथ लगाकर देखा तो स्लीपिंग बैग पर बर्फ जमी हुई थी। झाड़ कर साफ़ करने की कोशिश की तो कोशिश बेकार चली गई। इस कोशिश में थोड़ा सा टेंट हिल गया, धड धड़ा धड ऊपर से बर्फ मुंह पर आ गिरी। पूरी रात हमारी सांसों से निकली ऊष्मा बर्फ में तब्दील होती गई व मुंह के आस-पास, स्लीपिंग बैग और सर में पहनी टोपी पर जम गई। जो कुछ बची वो टेंट की छत पर अंदर की ओर से भी जम चुकी थी। हल्का सा भी टेंट हिलता तो सीधे मुंह पर आकर गिरती। कुल मिलाकर चादर पर अगर कोई उठने में लेट लतीफी करे तो उसका इलाज मालूम पड़ गया, टेंट हल्का सा हिला दो, खुद ब खुद उठ जाएगा, आज यह ज्ञान प्राप्त हुआ।
चादर पर आज हमारी पहली सुबह थी। टेंट से बाहर निकला तो एक झटके में पूरे शरीर के रोएं खड़े हो गए। ग्रुप के कुछ सदस्य रात की जलाई आग के पास तिनकों को जलाने पर लगे हुए थे, जिससे कुछ तो गर्मी मिले। अब बारी थी एक और जंग लड़ने की, सुबह फ्रेश होने के लिए। यहां चार-पांच जोड़ी कपड़े पहनने के बावजूद भी हालत खस्ता हो रही थी, अब न मालूम यह प्रक्रिया कैसे पूर्ण होगी। खैर जैसे-तैसे निपटकर आए, टॉयलेट्री किट से टूथ पेस्ट निकाला तो ये हथोड़े के जैसे सख्त बना हुआ था, अब ये नई मुसीबत, उबलते पानी के कप में डाला तो काम बन गया। मुंह धुलने की तो सोच भी नहीं सकता था।
मेरा यह सब लिखने का मकसद यह नहीं है कि हमने क्या किया, क्या नहीं किया ये आपको बताऊं, असल मकसद वहां की परिस्थितियों को आपके सम्मुख रखना है। कल रात की ग्रुप मीटिंग में ही आज के दिन का कार्यक्रम तय हो गया था। नाश्ता करने के उपरान्त सुबह आठ बजे आज के दिन ट्रैकिंग की शुरुआत कर दी।
शिंगरा योकमा में कल देर रात तक ग्रुप पहुंचते रहे थे। खूब चहल-पहल मची हुई थी। सुबह ट्रैक शुरू करते ही चादर पर लंबी लाइन लग गई। चादर पर जिस जगह नदी पूरी जमी नहीं होती वहां पर सभी को किनारे पर एक लाइन बनाकर चलना होता है। आगे वाला आगे बढे तो ही आप आगे बढ़ेंगे। थोड़ा आगे बढ़े तो मालूम पड़ा कि एक महाशय फिसल कर नदी में घुस गए थे, उनको बाहर निकालकर कपडे आदि बदलवाये जा रहे थे। बंदा ठण्ड के मारे बुरी तरह काँपे जा रहा था।
अक्सर इस तापमान में भीग जाने से और ठण्ड से हाइपोथर्मिया होने का खतरा बना रहता है, ऐसे में जल्दी से सूखे कपडे पहनना जरुरी होता है। किसी और के फिसलकर भीगने से हमारे ग्रुप के सदस्यों का फायदा यह हुआ कि जो थोडा बहुत लापरवाही से चल रहे थे वो सकते में आकर चादर पर चलने के नियमों का अच्छे से पालन करते नजर आने लगे। खैर फिसलकर नदी में घुसने का खौफ अधिक देर तक बरकरार न रह पाया, कुछ ही देर बाद सबकी मस्ती फिर से शुरू हो गई।
चादर ट्रैक की कई विशेषताएं हैं। उनमें से एक यह है कि यह ट्रैक पूरी तरह से मौसम के ऊपर निर्भर है। आज हम नदी के जिस हिस्से के ऊपर चल कर जा रहे हैं, जरुरी नहीं कि कल हमारे पीछे आने वाले भी इसी ओर से आयें। हो सकता है कि कुछ ही देर में यह हिस्सा टूट कर ढह जाए व उनको यहाँ पर चादर मिले ही नहीं। तापमान में थोड़ा सा भी परिवर्तन होने से चादर का बनना व बिगाड़ना तय होता है। यहां सभी प्रार्थना करते रहते हैं कि और कड़ाके की ठंड पड़े। जितना तापमान अधिक गिरेगा, चादर उतनी मजबूत बनी रहेगी।
चादर का कौन सा हिस्सा मजबूत है, किस हिस्से में चलना है व कौन सा हिस्सा कमजोर है, यह सबसे आगे चल रहा गाइड ही तय करता है। हमारी टीम के सबसे अनुभवी व स्थानीय गाइड डुडूल अाचू सबसे आगे चल रहे हैं। पूरा ग्रुप उनको फोलो करता हुआ आगे बढ़ता रहेगा। यहाँ पूरी तरह से अनुभव ही काम आता है। कभी भी ज्यादा पहलवान बनकर इधर-उधर हुए नहीं कि कब पाँव अन्दर नदी में घुस जाए मालूम ही नहीं पड़ेगा।
जैसे-जैसे आगे बढ़ते जा रहे थे, चादर ट्रैक के असली रंग दिखने शुरू हो गए। पहाड़ के बीच से आते छोटे-छोटे झरने जमे हुए मिलने शुरू हो गए। प्रकृति की कलाकारी देखते ही बनती है। लद्दाख के ये पहाड़ रूखे सूखे हैं, अमूमन जांस्कर घाटी के पहाड़ों की ऊंचाई नदी के तल से सौ मीटर या दो सौ मीटर होती है। सभी पहाड़ सीधे 90 डिग्री के कोण पर खड़े हैं। ठीक सर के ऊपर विभिन्न प्रकार की आकृतियां लिए इन पहाड़ों को देखना भी अदभुत एहसास है।
जैसे-जैसे ग्रुप के सदस्य आगे बढ़ते जा रहे थे सबकी फिसलकर गिरने की गिनती भी शुरू हो गयी। कौन कुल मिलाकर कितनी बार गिरा ये हिसाब शाम को सबसे पूछा जाएगा। हमारे ग्रुप के सदस्य राणा जी ने एक नामकरण कर दिया “आऊ लोलिता”। कई बार जैसे ही फिसलने को पांव रपट जाता तो बोल पड़ते… आऊ लोलिता, मतलब गिरते गिरते बचे हो।फिर तो यह पूरे ग्रुप का तकिया कलाम ही बन गया, जो आखिरी दिन तक चलता रहा।
ट्रैक पर कई बार कुछ लोग अपना बैग स्वयं लेकर चलना पसंद नहीं करते। सबकी अपनी अपनी पसंद-नापसंद होती है। अधिकतर ट्रैक पर क्यूंकि चढ़ाई चढ़नी ही होती है इसलिए आप अपना बैग लेकर ना भी चलें तो सुरक्षा की दृष्टि से कोई विशेष फर्क भी नहीं पड़ता। लेकिन चादर ट्रैक पर अच्छा होता है की आप बैग को लेकर चलें। चाहे छोटा बैग ही क्यूँ न हो, यह आपकी सुरक्षा की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। यहाँ एक दिन में औसतन आपको आठ से दस किलोमीटर फिसलन भरी चादर पर चलना ही पड़ेगा। और इन आठ- दस किलोमीटर में एक-दो बार आप फिसलेंगे जरूर। अगर फिसलकर गिरते भी हैं तो पीछे की ओर गिरिये जिससे पूरा वजन बैग पर पड़ेगा और आपको चोट लगने की सम्भावना ना के बराबर होगी।
दिन के भोजन के लिए हमसे पहले पहुंचकर एक स्थान पर हमारे सपोर्टिंग स्टाफ ने पूरी तैयारी कर ली थी। चूँकि यहाँ हर चीज दस मिनट में ही फ्रीज हो जाती है, इसलिए इस ट्रैक पर पैक्ड लंच का सवाल ही नहीं उठता। जो भी खाना है, गर्म बनाकर ही खाना है। ग्रुप के पहुँचते ही गर्म चाय मिली व उसके बाद गर्मागर्म खाना। ऐसे बीहड़ स्थान पर इससे बेहतर और क्या चाह सकते हैं।
ट्रैक को ग्रुप में किया जाए तो सबसे अच्छी बात यह होती है कि खूब मस्ती का दौर चलता रहता है। हर पल हंसी मजाक चलते रहने से रास्ते की कठिनाइयों का मालूम नहीं पड़ता। रास्ते भर जमकर फोटो सेशन भी चलता रहा, व शानदार नजारों का रुक रुककर आनंद लेते हुए आगे बढ़ते रहे। चूँकि यह एक प्रोफेशनल ट्रैक था, इसलिए प्रतिदिन पांच से छह घंटे की ही ट्रेकिंग करनी पड़े इसी को ध्यान में रखकर इस ट्रैक को प्लान किया गया था। सुबह आठ बजे के लगभग हमने शिंगरा योकमा से चलना शुरू किया था और लगभग दिन के तीन बजे हम ग्याल्पो पहुँच गए।
कैम्प्साईट पहुँचते ही सभी सदस्यों को टेंट पिच कैसे करते हैं, टेंट पिच करते हुए क्या-क्या बातें ध्यान रखनी चाहिए आदि की जानकारी देकर उनसे कैम्प साईट को तैयार करने में मदद ली गई। कुछ देर आराम करने के बाद आस-पास जाकर रात के लिए लकड़ियाँ इकट्ठी करनी शुरू कर दी। जिससे पूरे दिन चलकर आने से अगर कुछ भी कपडे भीग जाएँ तो उनको सुखा भी लें व रात में इस तापमान में बोन फायर हो तो कैंपिंग का असली मजा आ जाता है।
बोन फायर को लेकर कुछ बातें बताना चाहूंगा। ये बात अवश्य है कि आग हमारे लिए जीवनरक्षक है, लेकिन जब तक बहुत जरूरी न हो बोन फायर के मैं पक्ष में नहीं रहता हूं। कई जगह आग जलाने से प्रकृति को नुक़सान भी पहुंचता है। मसलन अगर हम बुग्याल क्षेत्र में ट्रैक कर रहे हैं तो वहां जमीन पर आग नहीं जलानी चाहिए। चादर जैसे ट्रैक में बोन फायर एक सीमित समय के लिए करनी चाहिए, क्यूंकि यहां पहले ही लकड़ियों की कमी है। कुल मिलाकर प्राकृतिक संतुलन बना कर ही बोन फायर हो तो अच्छा है।
चादर एक सामान्य ट्रैक नहीं है, न ही यह किसी ट्रैकर ने खोजा है। जान्स्कर घाटी के निवासी सदियों से इस रास्ते को लेह आने जाने के लिए प्रयुक्त करते रहे हैं। यह एक दुर्गम स्थान है पूरे साल बाकी दुनिया से लगभग कटा ही रहता है। सर्दियों में जैसे ही जान्स्कर नदी जमती थी तो स्थानीय निवासियों के लिए लेह पहुंचना सुगम हो जाता था। अन्यथा यहाँ के कई सौ मीटर सीधे खड़े पहाड़ों को लांघकर इस ओर आने की सोच भी नहीं सकते। डिस्कवरी चैनल ने जबसे यहाँ के स्थानीय निवासियों पर डोक्युमेंट्री बनाकर दिखाई तो ट्रैकिंग के शौकीनों के हाथ मानो खजाना लग गया। आज के समय जान्स्कर नदी यहाँ के स्थानीय निवासियों के रोजगार के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। जहाँ सर्दियों में यहाँ चादर ट्रैक किया जाता है वहीँ गर्मियों में राफ्टिंग के लिए ये जगह किसी स्वर्ग से कम नहीं।
हमारे सपोर्टिंग स्टाफ में एक नवयुवक था लोफ्जांग… हंसमुख, मेहनती और खूब मजाकिया। वो शुरू के दिन से ही सबका लाडला बन गया। लोफ्जांग सबसे पहले कैम्प साईट पर पहुंचकर लकड़ियाँ लेने निकल जाता। चूँकि यहाँ लकड़ियाँ ढूँढना सोना ढूँढने के बराबर है फिर भी वह अँधेरा होने तक खूब सारी लकड़ियाँ ढूंढ लाता। पूरे ग्रुप की मौज आ जाती। आज भी यही हुआ, थोड़ी बहुत लकड़ियाँ हम इकट्ठी कर लाये थे, लोफ्जांग भी कुछ लेकर पहुँच गया। रात खूब गाने बजाते हुए कटनी ही थी….
To be continue……….
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ट्रैक शुरू |
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चादर मस्ती |
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नदी का तल दिखता हुआ |
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स्लेज पर सामान ढोते पोर्टर |
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फोटो सेशन |
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फोटो सेशन |
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चादर |
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सोच सकते हैं ये नदी के ऊपर खड़े हैं ? |
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यही है चादर |
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मस्ती |
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धूप मतलब राहत |
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चले चलो |
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नजारे शुरू |
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चादर के नजारे |
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प्यास जो न करवाएं |
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एक दूसरे को फॉलो करते हुए चलो |
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यशवंत और विनोद |
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यशवंत |
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टूटी चादर क्रॉस करते हुए |
आऊ लोलिता...
ReplyDeleteवाह बहुत ही शानदार ट्रैक था आप सभी का
ReplyDeleteशानदार फोटोग्राफी,यात्रा विवरण
ReplyDeleteशानदार
ReplyDeleteदादा , मजा ता तुम्हारा ही छन। .. मी भी आनु हैंक दा। दीपक नैथानी
ReplyDelete6 महीनों से अगले भाग का वेट् कर रहा भाई जी।
ReplyDeleteachhi jankri di hai aapne
ReplyDeleteवाह वाह मस्त मजा आया,,,,,,,,फोटोज सभी लाजबाब शानदार👍
ReplyDeleteशानदार फोटोग्राफी विस्तृत जानकारी
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