बद्रीनाथ से लक्ष्मीवन
सुबह पाँच बजे आँख खुल गई। रमेश जी और सचिन त्यागी को भी बद्रीनाथ से ऋषिकेश जानी वाली पहली बस से वापिस जाना था। दोनों लोगों से विदा ली और फ्रेश होकर यात्रा की तैयारी करने लग गए। गज्जू भाई को सुबह जल्दी आकर राशन व अन्य सामान की पैकिंग करने को कहा था लेकिन वो अभी तक नहीं पहुंचा। फिर भी सभी मित्र तैयार होने लगे। आज हमको बद्रीनाथ से बारह किलोमीटर दूर लक्ष्मीवन में रुकना था। बद्रीनाथ की समुद्र तल से ऊँचाई लगभग ३१५० मीटर है, जबकि लक्ष्मीवन लगभग ३७०० मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। चढ़ाई के मामले में आज आसान चढ़ाई मिलने वाली थी।
पौराणिक मान्यता है कि पाण्डव जब अपनी अन्तिम यात्रा पर थे तो सर्वप्रथम द्रोपदी, उसके उपरान्त सहदेव, नकुल, अर्जुन और भीम ने इसी रास्ते पर चलते हुए अलग-अलग स्थानों पर देह त्याग किया था। चलते-चलते जहाँ भी कोई गिर पड़ता, बिना पीछे देखे बचे लोग आगे बढ़ते रहते।
सुबह के नाश्ते के लिए बाहर में ही एक ढाबे पर परांठों के लिए अमित भाई ने व्यवस्था कर दी थी। साथ ही दिन के भोजन के लिए भी यहीं से पराँठे और अचार पैक करके साथ ले चलने को कह दिया था। सात बजे जब सभी नाश्ता कर रहे थे तो गज्जू भाई भी अन्य चार पोर्टरों के साथ पहुँच गया। उनको जल्दी से सामान आदि पैक करने को कह दिया और नाश्ता करने के उपरान्त "जय बद्री विशाल" के उदघोष के साथ सतोपन्थ यात्रा की शुरुआत कर दी गई।
सुबह-सुबह बद्रीनाथ में श्रद्धालुओं की दर्शन हेतु लम्बी लाइन लगी थी। तप्त कुण्ड के नीचे अलकनन्दा में खूब कचरा गिराया जा रहा है। गंगा में गन्दगी उसकी शुरुआत से ही फेंकी जाती है। मालूम नहीं हम लोगों को कब अक्ल आएगी। लोगों को नहीं तो मन्दिर समिति या प्रशाशन को इसकी व्यवस्था करनी चाहिए।
बद्रीनाथ मन्दिर को पार करके कुछ आगे जाते ही एक छोठा सा मन्दिर आता है, जिसमें नाग और नागिन का जोड़ा विराजमान है। दरवाजे पर ताला लगा हुआ था, बाहर से ही देखते हुए आगे बढ़ चले। खेतों के बीच से होकर आसान रास्ते के साथ शुरुआत होती है। माना गाँव के ठीक सामने माता मन्दिर पर पहुँचकर कुछ देर विश्राम किया। आबादी भी यहीं पर समाप्त हो जाती है, अब पूरे चार दिन बाद ही किसी घर या गाँव के दर्शन होन्गे।
फ़ोन नेटवर्क भी यहीं माता मन्दिर तक मिलता है। फोन नेटवर्क का ध्यान इसलिए आया कि चलते-चलते यहीं पर मेरे मित्र प्रकाश यादव जी का फोन आ रहा था, लेकिन जब तक मैं फोन उठा पाता नेटवर्क गायब हो गया। अब पाँच दिन बाद बद्रीनाथ पहुँचकर उनको फोन करूँगा। कुछ दिन बाकी दुनिया से पूरी तरह कट कर प्रकृति की गोद में खोए रहेंगे। शानदार प्राकृतिक नज़ारे वैसे तो बद्रीनाथ से भी दिखते हैं, लेकिन जो आनन्द ऐसे एकान्त में आता है वो वहां से नहीं।
कुछ और आगे तक आसान रास्ते के बाद करीब सौ मीटर की सीधी उतराई उतर कर धानु ग्लेशियर के दर्शन होते हैं। इस सीधी उतराई ने ट्रैक का ट्रेलर सभी मित्रों को दिखा दिया कि इसीलिए ही सतोपन्थ कठिन ट्रैक की श्रेणी में आता है। पिछले वर्ष तक सभी ग्लेशियर अलकनन्दा के ऊपर आवाजाही के लिए एक पुल का कार्य करते थे, लेकिन जलवायु परिवर्तन का असर इस वर्ष यहीं से दिखना शुरू हो गया था। धानु ग्लेशियर फट कर एक दैत्य रूप में मुहँ बायें सामने था, और उसके अन्दर से प्रचंड वेग से बहती अलकनन्दा को देखते ही रोहें खड़ी हो जानी स्वाभाविक थी। हमारे साथ भी एक-दो सेल्फी प्रेमी थे। कोने-कोने पर जाकर धानु ग्लेशियर के साथ सेल्फी लेने लगे। उनको डाँट पिलानी पड़ी, फिर जाकर माने।
कभी भी ग्लेशियरों को हल्के में नहीं आँकना चाहिए। मेरी नजर में किसी भी ट्रैक पर सबसे खतरनाक कोई क्षेत्र होता है तो वो या तो भू-स्खलित क्षेत्र होता है, या फिर ग्लेशियर क्षेत्र होता है। जरुरत से ज्यादा ध्यान और सावधानी से इनको पार करना चाहिए। कोशिश करनी चाहिए कि बिना रुके इनको पार कर लो, कब ऊपर से पत्थर या मलवा आ जाए कुछ नहीं कह सकते। ऐसे ही ग्लेशियर में कब दरार पड़ जाए कुछ नहीं मालूम।
धानु ग्लेशियर से बिल्कुल सट कर रास्ता आगे बढ़ता है। इसके एक हिस्से के ऊपर लगभग सौ मीटर की सीधी चढ़ाई चढ़कर इसको पार करना था। सभी मित्रों को बहुत ही सावधानी से इस क्षेत्र को पार करने के लिए कह दिया। यहाँ पर एक भी चूक की कोई गुंजाइश नहीं थी। पाँव फिसलता तो ठोस बर्फ में सौ मीटर नीचे सीधे ग्लेशियर फट कर मुहँ बाये लीलने के लिए तैयार था। सभी ने इस क्षेत्र को सावधानी से पार किया, और आगे बढ़ चले।
धानु ग्लेशियर के बाद कुछ दूरी तक समतल और आसान रास्ता है। दाहिनी ओर बहती अलकनन्दा और दूसरी ओर वसुधारा के दर्शन शुरू हो जाते हैं। कुछ आगे जाने पर बुग्याल भी मिलने लगते हैं, जो आगे चमतोली बुग्याल तक बना रहता है। आजकल बुग्यालों में रंग विरंगे कई प्रकार के फूल खिले मिल जाते हैं।
एक जगह पर आराम करने बैठ गए, दूसरी ओर ठीक सामने वसुधारा को देखना अदभुत था। हवा के वेग से वसुधारा फाल का पानी हिलौरें मारता रहता है। चमतोली बुग्याल से कुछ पहले एक गुर्जरों का ठिकाना बना हुआ था। आजकल अपनी भेड़ बकरियों को लेकर गुर्जर लोग बुग्यालों में आ जाते हैं। अक्टूबर में जब बर्फ गिरनी शुरू होगी तो सभी अपने-अपने क्षेत्रों में वापिस लौट जाते हैं। यहाँ पहुँचकर मालूम पड़ा कि हमारे एक पोर्टर को बुखार है। इस हालत में उसको आगे साथ ले जाना उचित ना समझकर, एक बुखार की गोली खिलाकर वापिस बद्रीनाथ की ओर रवाना कर दिया। उसका सामान बाकी चार पोर्टरों ने आपस में बाँट लिया।
यहाँ से हल्की चढ़ाई के साथ रास्ता आगे बढ़ता है जो चमतोली बुग्याल पर समाप्त हो जाता है। चमतोली बुग्याल छोठा सा समतल मैदान है। पानी की उपलब्धता भी है। इसी मैदान में अक्सर लोग कैम्प करते हैं। आज ही यहाँ पर गढ़वाल मंडल विकास निगम वालों का एक अच्छा खासा ग्रुप पहुँच रहा है। उनके पोर्टर यहाँ टेण्ट इत्यादि लगाते मिले। चमतोली बुग्याल जैसे ही हम लोग पहुँचे, मौसम ने एकाएक करवट ली और बूंदा-बाँदी शुरू हो गई।
वैसे तो चमतोली बुग्याल में सर छुपाने के लिए एक दो गुफाएँ हैं। लेकिन हम उनसे कुछ आगे आ चुके थे। जैसे ही पानी बरसना शुरू हुआ मैंने दौड़ लगा दी। जहाँ भी सर छुपाने की जगह मिलेगी वहीँ घुस जाऊँगा। दो सौ मीटर आगे ही एक तिरछा बड़ा सा पत्थर दिख गया आराम से छह-सात लोग इसके नीचे बैठ सकते थे। बारिश से बचाव आसानी से हो जाएगा।
सतोपन्थ ट्रैक की एक खासियत यह भी है कि अगर आपके पास टेण्ट नहीं है, तब भी इस ट्रैक को किया जा सकता है। सिर्फ एक स्लीपिंग बैग आवश्यक है। जगह-जगह पर अच्छी खासी गुफाएँ मिलती हैं, जिनमें आराम से पाँच से छह लोग रात व्यतीत कर सकते हैं। हमारे साथ चल रहे पोर्टर इस पूरे ट्रैक पर इन्ही गुफाओं में सोये, और हर दिन हमारा किचन भी गुफा ही होती थी। बारिश में मेरी देखा देखी बाकी मित्रों ने भी दौड़ लगा दी, और इसी पत्थर के नीचे सभी ने शरण ले ली।
बद्रीनाथ से ही दिन के भोजन हेतु पराँठे और अचार पैक करवाकर लाए थे। भूख भी सभी को लग रही थी। यहीं पर पराँठे खोलकर दिन का भोजन कर लिया गया। आधे घण्टे के उपरान्त बारिश के थमते ही एक बार आगे की यात्रा प्रारम्भ कर दी गयी। चमतोली बुग्याल के तुरंत बाद पठारी क्षेत्र और कुछ आगे से ग्लेशियर क्षेत्र शुरू हो जाता है। इसकी विशिष्ठता यह होती है कि आम पहाड़ी पगडण्डी जो पहाड़ों पर चलने के लिए बनी होती है वो भी गायब मिलती है।
बड़े-बड़े पत्थरों के ऊपर से चलकर आगे बढ़ना होता है। रास्ते की पहचान हेतु सतोपन्थ जाने वाले यात्रियों या पोर्टर, गाइड आदि ने हर दस से बीस मीटर पर चार-पाँच छोठे-छोठे पत्थर एक के ऊपर एक रख दिए हैं। जिससे अनुमान लग जाता है कि किधर जाना है। इन बोल्डर्स पर चलने में भी अत्यधिक सावधानी का प्रयोग करना होता है। कई बार बड़े से पत्थर के ऊपर पांव रखते ही वो पत्थर ही आगे को सरक जाता है।
हिमालय में अक्सर बर्फ के हिमस्खलन (Aavalanche) होते रहते हैं, जिससे पहाडों से बर्फ के साथ साथ बड़े-बड़े पत्थर टूट कर नीचे गिरते रहते हैं। इन्ही टूटे बड़े-बड़े पत्थरों पर चलकर आगे बढ़ना होता है। इनके नीचे बर्फ और पानी होता है। कई बार कल-कल बहते पानी की ध्वनि साफ़ सुनाई भी पड़ती है।
इन्ही बोल्डर्स पर बनाये गए रास्ते के निशान को देखते हुए आगे बढ़ते गए। करीब एक किलोमीटर पहले से लक्ष्मीवन दिखना प्रारम्भ हो जाता है। लक्ष्मीवन से कुछ नीचे दो ग्लेशियर, सतोपन्थ ग्लेशियर और भागीरथी खरक आपस में मिलते हैं। इस जगह को अलकापुरी के नाम से भी जाना जाता है। पुराणों में अल्कापुरी को कुबेर की राजधानी बताया गया है। ठीक इसके ऊपर अलकापुरी टॉप विराजमान है।
वसुधारा से आने वाले ट्रैकर यहीं अलकापुरी में ग्लेशियर को पार करके लक्ष्मीवन पहुँचते हैं। हालाँकि इस वर्ष कम बर्फ़बारी के कारण इस ग्लेशियर छेत्र को पार करना सभंव नहीं है। अभी सूर्यास्त में काफी समय था, कुछ मित्र आगे जा चुके थे। मैं, कमल भाई, सुमित, संजीव त्यागी और योगी सारस्वत भाई साथ-साथ चल रहे थे। एक जगह पर बोल्डर्स कम और बुग्याली घास दिखी, साथ ही ऊपर हिमालय से बहकर आता छोठा सा नाला भी था। बस फिर क्या चाहिए था। इसी घास पर गुनगुनी धूप में सभी पसर गए।
करीब एक घण्टे तक यहाँ पर लेटे-लेटे शानदार नजारों का आनन्द लिया। साथ ही यह घोषणा भी कर दी कि इस ट्रैक से एक बार में मन नहीं भरेगा, दुबारा भी अवश्य आऊंगा। सामने दूसरी ओर ऊंचाई से गिरता वसुधारा जल प्रपात हिलोरें मारता शानदार दिखता रहता है। एक घण्टा लेटे रहने के बाद मस्ती में आगे बढ़ चले। फिर से बोल्डरों के ऊपर उछल कूद करते हुए लक्ष्मीवन पहुँच गए। आज का हमारा रात्रि विश्राम यहीं पर होना था।
पोर्टर और कुछ साथी काफी पहले पहुँच चुके थे। गुफा में हमारा किचन सज चुका था, और रात्रि भोजन की तैयारी शुरू हो चुकी थी। पहुँचते ही गर्मागर्म चाय और बिस्कुट खाये गए। अभी भी अच्छी खासी धूप बाहर खिली हुई थी। कुछ देर आराम करने के उपरान्त टेण्ट लगाने की कार्यवाही को अंजाम दिया गया। हम कुल नौ लोग थे और हमारे पास तीन टेण्ट थे। सभी टेण्ट केचुआ के T-2 यानी दो लोगों वाले टेण्ट थे।
एक टेण्ट सुमित के मित्र का श्रीनगर से उठा लाए थे, जिसको कि मैंने श्रीनगर में देखते ही रिजेक्ट कर दिया था। बिल्कुल पतला टेण्ट और कोई वाटरप्रूफिंग भी नहीं थी। कुल मिलाकर अगर ओस भी गिरे तो उसके अन्दर टपक पड़ती। फिर इतने कम तापमान में ये टेण्ट किसी काम का नहीं था। जाट देवता अपने साथ दिल्ली से एक १५*१५ की मोटी पन्नी लेकर आए थे। उनका इरादा इसी को खुद पर लपेटकर सोने का था। मालूम नहीं किस हाड मांस के इंसान हैं।
मैंने उन्हें सलाह दी कि सुमित वाले टेण्ट के ऊपर इस पन्नी को बिछा दो, जिससे टेण्ट की वाटरप्रूफिंग हो जाएगी। लेकिन उन दोनों ने उस पन्नी को टेण्ट के फर्श पर मैट्रेस के जैसे प्रयोग करके सोना ठीक समझा। फिर भी उनको कह दिया कि कोई बात नहीं रात को ठण्ड लगे तो हमारे टेण्ट में चले आना। सोयेंगे नहीं बैठे-बैठे रात काट लेंगे।
मेरे साथ टेण्ट पार्टनर कमल भाई थे। दूसरे टेण्ट में जो पुराना T-2 टेण्ट था उसमे तीन लोग रहेंगे, क्यूंकि इसका आकार थोडा बड़ा होता है। योगी भाई, सुशील कैलाशी और विकास। तीसरा फिर से छोठा T-2 टेण्ट था इसमें अमित तिवारी और संजीव त्यागी रहेंगे।
टेण्ट लगाने के बाद मैं विश्राम करने लगा। कुछ मित्र नीचे भोजपत्र के पेड़ों को देखने चले गए। लक्ष्मीवन में कुछ पंद्रह-बीस भोजपत्र के पेड़ हैं। इतनी ऊंचाई पर जहाँ घास तक सही से नहीं उग पाती वहाँ इन पेड़ों का पाया जाना भी अनूठा है। लक्ष्मीवन में पानी की उपलब्धता है, साथ ही कैम्पिंग ग्राउंड भी अच्छा खासा है।
जैसे-जैसे सूर्यास्त होता जा रहा था तापमान में गिरावट आनी शुरू हो गई। भोजनोपरांत हम भी अपने टेण्ट में घुस गए। कुछ देर पश्चात सुमित और योगी भाई ताश लेकर हमारे टेण्ट में घुस आए। फिर मस्ती का दौर जो शुरू हुआ आधी रात तक ठहाकों के साथ चलता रहा। आज अपेक्षाकृत आसान दिन था कल से इस ट्रैक पर सबकी असली परीक्षा होनी थी, इसलिए आराम भी जरुरी था। वैसे मुझे स्लीपिंग बैग में कभी भी अच्छी नींद नहीं आती, फिर भी जैसे-तैसे सोने की कोशिश करने लगे।
क्रमशः......
इस यात्रा वृतान्त के अगले भाग को पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें।
क्रमशः......
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जय बद्री विशाल |
फेंको कूड़ा गंगा तो माँ है |
बद्रीनाथ में अलकनन्दा |
माणा गांव |
माता मन्दिर |
धानु ग्लेशियर |
धानु ग्लेशियर फटा हुआ |
फ़ोटो शूट |
ग्लेशियर पार करते हुए |
यात्रा में सावथानी आवश्यक है, पहाड़, ग्लेशियर, समुद और ज्वालामुखी बड़े के क्रूर होते हैं, छोटी सी गलती भी माफ नहीं करते।
ReplyDeleteसही बात ललित सर।
Deleteजबरदस्त, वसुधारा वाला फ़ोटॊ तो बहुत शानदार है।
ReplyDeleteधन्यवाद संजय जी।
Deleteकहते है बद्रीनाथ मन्दिर के नाग नागिन के मन्दिर में यदि चांदी के नाग नागिन चढ़ाये तो कालसर्प दोष ख़त्म होता है
ReplyDeleteशानदार यात्रा
धन्यवाद बुआ।
Deleteफोटो एकदम मस्त है
ReplyDeleteफोटो एकदम मस्त है
ReplyDeleteधन्यवाद
Deleteबहुत बढ़िया
ReplyDeleteधन्यवाद रमेश भाई जी।
Deleteफोटो शूट वाले फोटो में ऐसा लग रहा है जैसे सुशिल जी और कमल भाई किसी फ़िल्मी कलाकार की तरह " फोटो शूट " करा रहे हों ! वसुधारा कम से कम 3 किलोमीटर तक दिखाई देता है उस तरफ से और एक यात्री को धोखे में रखता है , कि अब आया लक्ष्मी वन कि अब आया ! वो जहां हम सब पड़े हुए हैं , आराम कर रहे हैं वहीँ आपका चश्मा मुझसे छूट गया था और फिर मिला ही नहीं !
ReplyDeleteBeenu bhai ka chasma chod diya or unhone aap ko baksh diya ....lucky ho aap :-)
Deleteकोई बात नहीं महेश जी। दूसरा चश्मा था मेरे पास। योगी भाई ने काम चलाऊ वाला चश्मा गुमाया।
DeleteBeenu bhai as usual beautifully written post !
ReplyDeleteधन्यवाद महेश जी।
Deleteफुल एंजॉय ऑफ लाइफ
ReplyDeleteजी जावेद भाई।
Deleteबढ़िया लेखन ��
ReplyDeleteकालिदास ने 'मेघदूतम' में अलकापुरी का बहुत सुंदर दृश्य खींचा है, जहाँ देवता निवास करते हैं। अब तो खैर वहां इंसान पहुँच जाते हैं, इसलिए शायद देवताओं ने अपने घर का पता बदल लिया हो :)
मस्त यात्रा का उतने ही मस्त सहयात्रियों के साथ चल रही है �� फ़ोटोज़ अच्छे है।
अगले भाग की शीघ्रताशीघ्र प्रतीक्षा...
धन्यवाद पा जी।
Deletebahut accha ramta jogi ji ek baat mujhe khal rahi hai aapne waha campfire ka jugad nahi kiya tha agar wo hota to aapza aata aur relax bhi milta " jai badri vishal"
ReplyDeleteग्लेशियर छेत्र में लकड़ी नहीं मिलती भाई।
DeleteBoht he sundar aur adhbhut nazaare hai, yatra ka varnan boht he acha kiya hai aapne!
ReplyDeleteधन्यवाद
Deleteबीनू भाई द्वारा आप के साथ यात्रा कर के मजा आ रहा है।
ReplyDeleteधन्यवाद सुशील भाई।
Deleteशानदार वर्णन ।जाटदेवता का फोटो तो दूर से नजर आ जाता है
ReplyDeleteजी
Deleteबहुत ही सुंदर जगह के बारे में आपने बताया। क्या क्या सावधानी बरतनी चाहिए। यह भी पता चला। एकांत, शांत ऐसी जगह मन को बहुत अच्छी लगती है, प्रकृति के बिल्कुल नजदीक, अपने गमो से दूर, दुनिया की रोज की भारगभाग से दूर। 13 जून की सुबह जब मै वापिस जा रहा था, तब मन बहुत दुखी था। क्योकी दोस्तो का संग व ऐसी प्रकृति के निकट जगह हर बार व हर किसी के नसीब में नही होती।
ReplyDeleteबीनू भाई फोटो बेहतरीन है
धन्यवाद सचिन भाई।
Deleteमेरे जैसे व्यक्तियों के लिये ट्रैकिंग या तो स्वप्न में हो सकती है या आप जैसे ट्रैकर्स के संस्मरण पढ़ कर ही आनन्दित हो लेते हैं! आपकी फोटो और विवरण आपके जीवट का भरपूर परिचय दे रहे हैं! यूं ही घूमते रहें, लिखते रहें और हम सब को आनन्दित करते रहें। हार्दिक शुभ कामनाएं !
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद सुशान्त सर।
Deleteबिनु जी सुन्दर चित्रों के साथ बहुत ही रोचक यात्रा.... ट्रैकिंग के दौरान छोटी-छोटी बातों का ध्यान रखना जरूरी होता है...
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