चौथा दिन (बेदिनी से भगुवासा)
सुबह करीब 6 बजे हट से बाहर निकलने की हिम्मत हुयी, रात को तापमान शून्य से नीचे ही था, स्लीपिंग बैग के अंदर मुझे कभी भी अच्छी नींद नहीं आती। नीचे मैट्रेस भी बिछा रखी थी, और पूरे गर्म कपडे पहन के सोया था, फिर भी रात बस जैसे-तैसे ही कटी। मैं अकेला ही नहीं था, सभी की हालत एक जैसी ही थी, सूर्योदय होने में अभी समय था, ठण्ड से डुगड़ुगी सभी की बज रही थी। पूरे बेदिनी बुग्याल में रात की गिरी ओस के कारण बर्फ की हल्की सी चादर बिछी पड़ी थी, सुमित ने जैसे तैसे करके बाहर में एक छोटा सा चूल्हा बनाकर आग जला ली, थोडा सा मिट्टी का तेल साथ लेकर आये थे तो आग जल भी गयी, नहीं तो लकड़ियों पर भी बर्फ सी जमी हुयी थी, एक छोटा सा भगोना रख के पानी गर्म किया, ठन्डे पानी से मुहँ धुलना तो सोच भी नहीं सकते थे।