लक्ष्मीवन से चक्रतीर्थ
हिमालय की ऊँची चोटियों पर सूर्यादय जल्दी होने के साथ-साथ सुबह भी जल्दी हो जाती है। टेण्ट के बाहर कुछ साथियों की हलचल भी सुनाई देने लगी थी। बाहर तापमान काफी कम था, फिर भी जितनी उम्मीद थी उतनी ठण्ड नहीं झेलनी पड़ी। जहाँ पर हमने टेण्ट लगाए थे, उससे दो सौ मीटर की दूरी पर ऊपर ग्लेशियर से बहकर आता एक बर्फीले पानी का नाला था। ब्रश आदि लेकर वहीँ गए और फ्रेश हो गए। मुहँ धुलने के बाद अंगुलियां ऐसी सुन्न पड़ी कि जल्दी से वहीँ पर बबूल की सूखी घास इकठ्ठा करके आग जलाकर हाथ सेकने पड़े, तब जाकर कुछ शान्ति मिली।
वापिस कैम्प में पहुँचकर टेण्ट सामान आदि समेटना शुरू कर दिया और आगे जाने की तैयारी करने लगे। आज हमने लगभग दस किलोमीटर दूर चक्रतीर्थ पहुँचने का लक्ष्य तय किया था। लक्ष्मीवन की समुद्र तल से ऊँचाई लगभग ३७०० मीटर है, वहीँ चक्रतीर्थ ४१०० मीटर के लगभग ऊँचाई पर स्थित है। हालाँकि चढ़ाई के मामले में आज भी चढ़ाई इतनी अधिक नहीं मिलने वाली थी, लेकिन आज पूरा दिन ग्लेशियर क्षेत्र के ऊपर से ही चलना था। ये तय था कि आगे रास्ते का कहीं नामोनिशान नहीं मिलेगा, बड़े-बड़े बोल्डर के ऊपर से उछल कूद करते हुए ही आगे बढ़ना पड़ेगा।
सुबह सात बजे तक नाश्ता कर लिया गया। खाने में स्वादिष्ठ खिचड़ी आम के अचार के साथ खायी गयी। टेण्ट पर गिरी ओस की वजह से इनको सुखाने के लिए धूप में डाल दिया। कुछ देर पश्चात टेण्ट इत्यादि पैक कर आज की ट्रैकिंग आरम्भ कर दी। बोल्डर्स के ऊपर से हल्की चढ़ाई के साथ रास्ते की शुरुआत हुई। हिमालय में ३५०० मीटर के ऊपर चलने में निश्चित रूप से हवा में ऑक्सीज़न की मात्रा भी कम मिलती है, इस वजह से सांस भी जल्दी फूलने लगती है।
शुरू के एक किलोमीटर आसान रास्ते के बाद बांधार पहुँच गए। यहीं पर भागीरथी खर्क ग्लेशियर और बांगलुंग ग्लेशियर आपस में मिलते हैं। पौराणिक मान्यता है कि बांधार में ही नकुल ने अपनी देह त्यागी थी। एक छोठी सी मानव निर्मित गुफा मिली, जिसके अन्दर लोमड़ी आराम फरमा रही थी। सभी मित्रों ने झाँक-झाँक कर देखा, तब भी गुफा से बाहर नहीं निकली। उसके आराम में खलल डालना उचित ना समझकर सभी आगे बढ़ गए। अमित भाई सबसे आगे चले जा रहे थे, लेकिन यहाँ से उन्होंने गलत दिशा पकड़ ली। उनकी देखा-देखी सभी पीछे-पीछे चल पड़े। जिस दिशा में बाकी लोग आगे बढे जा रहे थे उस पर मुझे किसी भी आवाजाही के कोई निशान नहीं दिखे तो मन में शंका हुई।
इधर-उधर देखा तो बायीं ओर आवाजाही के निशान दिख गए। जबकि अधिकतर साथी दायीं ओर से आगे बढ़ रहे थे। जब तक मुझे सही रास्ते का मालूम पड़ता कुछ लोग आँखों से ओझल भी हो गए। बचे साथियों को जोर-जोर से आवाज़ें लगाकर सही रास्ते पर आने को कहा। इतने में पीछे से चले आ रहे हमारे पोर्टर भी सीटियाँ बजाकर सभी को रुकने का इशारा कर रहे थे।
स्थिति की गंभीरता को देखते हुए पोर्टर जल्दी-जल्दी हमारे पास तक पहुँचे, और सामान वहीँ पर छोड़कर रास्ता भटके हुए साथियों की तलाश में दायीं ओर को दौड़ पड़े। असल में ग्लेशियर क्षेत्र में कब किधर जमीन धंस जाए, या ग्लेशियर चटख जाए और उसमें दरार पड़ जाए कुछ नहीं कहा जा सकता। मैं यह कहकर आगे बढ़ चला कि कुछ और ऊपर चढ़कर देखता हूँ, शायद वहां से रास्ता भटके साथी नजर आ जाएँ।
लगभग सौ मीटर ऊपर चढ़ा ही था कि लौट के बुद्धू सही रास्ते पर आते दिख गए। तब जाकर मन को तसल्ली हुई। यहीं पर एक चट्टान पर गदा रुपी आकृति उभरी हुई है। इसी से इस जगह का नाम भीम गदा पड़ गया। भागीरथी खर्क ग्लेशियर और बांगलुंग ग्लेशियर जहाँ पर मिलते हैं, उस जगह को ही पुराणों में कुबेर की राजधानी अलकापुरी के नाम से जाना जाता है। अलकनन्दा भी धरती के बाहर यहीं पर से दिखायी देती है। भागीरथी खर्क ग्लेशियर दूर भागीरथी पर्वत श्रृंखलाओं तक फैला पड़ा है। पिछले कुछ वर्षों से ये ग्लेशियर क्षेत्र जलवायु परिवर्तन के कारण तेजी से पीछे की ओर खिसक रहा है।
यहाँ से लगभग दो सौ मीटर और चढ़ाई चढ़ने के बाद नीलकंठ पर्वत से निकलती सहस्र धाराओं का शानदार नजारा मन को अभिभूत कर देता है। इन सहस्र धाराओं का एक ही क्षेत्र में बहकर आने से इस स्थान को सहस्रधारा के नाम से जाना जाता है। यहाँ से एक साथ नीलकंठ और पार्वती पर्वत को देखना अदभुत था।
सहस्रधारा की अनेक धाराओं को ठीक नीलकंठ पर्वत से निकलते देखना और उनके साथ-साथ आगे बढ़ना एक सुखद एहसास था। कुछ साथियों का यहाँ पर स्नान करने का मन कर गया। जिनकी हिम्मत ग्लेशियर के ठन्डे पानी में नहाने की थी वो नहाए भी। मेरे जैसे लोग पंच स्नान करके ही खुश हो गए। यहाँ से आगे बेहद संकरे और ग्लेशियर की नुकीली धार से होते हुए रास्ता आगे बढ़ता है। जो कि करीब एक किलोमीटर आगे एक समतल मैदान में जाकर ही समाप्त होता है।
दाहिनी ओर सतोपन्थ ग्लेशियर का विहंगम दृश्य भी लगातार साथ बना रहता है। सहस्रधारा की धाराओं के साथ-साथ चलते हुए एक समतल सा मैदान दिखा तो कुछ देर आराम करने बैठ गए। इन धाराओं के ठन्डे पानी में पाँव डालकर बैठे रहने में बड़ा ही आनन्द आ रहा था। विभिन्न मुद्राओं में सभी साथियों ने यहाँ पर खूब फ़ोटो खिंचवाई। जब फोटोग्राफी से मन भर गया तो ही आगे बढे।
वैसे तो ग्लेशियर क्षेत्र की ऊंची पर्वत श्रृंखलाओं पर अक्सर बादल घिरे रहते हैं। लेकिन आज मौसफ बिल्कुल साफ़ था। ऐसे में सभी चोटियों के शानदार नज़ारे साफ़-साफ़ दिखाई दे रहे थे। कुछ और आगे तक इसी समतल मैदान के बाद आगे खड़ी चढ़ाई सामने दिख रही थी। चढ़ाई से ठीक पहले हमारे पोर्टरों ने दिन के भोजन के लिए मैगी तैयार कर ली थी। भूख भी जबरदस्त लग रही थी और थकान भी महसूस होने लगी थी। मैगी खाकर शरीर में ऊर्जा आयी तो आज की अन्तिम चढ़ाई के लिए कमर कस ली।
ठीक सर के ऊपर करीब तीन सौ मीटर चढ़ना था, धीरे-धीरे चढ़कर जब ऊपर पहुँचे तो दिखा अभी तो इससे आगे भी चढ़ाई है। ग्लेशियरों से बहकर आते ठन्डे पानी के छोठे-छोठे नाले लगातार मिलते जा रहे थे। इन नालों का आकार दिन चढ़ने के साथ-साथ बढ़ता जाता है। शाम को इनमें फिर से पानी कम हो जाएगा। करीब आधा किलोमीटर आगे पहुँचने के बाद चक्रतीर्थ दिखना शुरू हो जाता है।
कटोरे के आकार मैं फैला चक्रतीर्थ सुन्दर बुग्याली मैदान है। कहते हैं भगवान नारायण ने यहाँ पर अपना चक्र रखा था। जिससे इसका आकार ऐसा है। इसीलिये इस जगह को चक्रतीर्थ के नाम से जाना जाता है। अर्जुन ने भी यहीं पर अन्तिम सांस ली थी। आधा किलोमीटर की उतराई के बाद मैदान में प्रवेश किया। शानदार कैम्पिंग स्थल है। चक्रतीर्थ में पानी की अच्छी खासी उप्लब्धतता है। चूँकि हमारे पोर्टरों के रहने के लिए और किचन के लिए हमें गुफा चाहिए थी इसलिए चक्रतीर्थ के अन्त में गुफा के नजदीक जाकर हमको अपने टेण्ट लगाने पड़े।
यहाँ पर दो बड़ी गुफाएँ हैं। एक में पोर्टर रहेंगे वहीँ हमारा किचन बन जाएगा और दूसरी गुफा पर जाट देवता ने कब्ज़ा जमा लिया। आज जाट देवता और सुमित गुफा में सोयेंगे, इनकी गुफा के द्वार पर मैंने अपना टेण्ट लगा दिया। जिससे गुफा के द्वार से हवा को घुसने के लिए अवरोध मिल जाएगा। धीरे-धीरे बाकी साथी भी पहुँचने लगे। सबकी ही हालत कुछ बहुत अच्छी नहीं थी। मुश्किल रास्ते से चलकर आने के बाद थकान का होना स्वाभाविक है। गर्मागर्म चाय पी और टेण्ट में ही आराम करने को लेट गया।
जब मैं दिल्ली से चला था तो मेरे बायें घुटने में तकलीफ थी। कल्पेश्वर-रुद्रनाथ ट्रैक से आये दस दिन भी नहीं हुए थे कि सतोपन्थ ट्रैक पर निकलना पड़ा। पहले दिन लक्ष्मीवन पहुँचने तक ही पाँव सूजकर कुप्पा हो गया था। हालत यह थी कि जूता भी नहीं पहन पा रहा था। एक बार लक्ष्मीवन से मन में आया भी कि वापिस हो लेता हूँ, फिर कभी इस ट्रैक को कर लूँगा। लेकिन दिल नहीं माना और चप्पलों में ही आज की पूरी ट्रैकिंग निपटा डाली। साथ में जाट देवता भी चप्पलों में इस ट्रैक को कर रहे थे, जिससे हौसला भी मिल रहा था।
पाँव को अधिक से अधिक आराम मिले इस वजह से मैं एक बार रात्रि निवास के ठिकाने पर पहुँचकर अधिक से अधिक आराम कर रहा था।
चक्रतीर्थ में शाम के समय मौसम ख़राब हो गया और बारिश शुरू हो गई। हमारे टेण्ट में ताश की महफ़िल एक बार फिर से जम चुकी थी। बाकी साथी जाट देवता की गुफा में गप्पें लड़ाने में मशगूल थे। अँधेरा होने से पूर्व ही भोजन कर लिया और आराम करने लगे।
रात को दस बजे के लगभग मुझे साँस लेने में परेशानी हुई तो उठ कर बैठ गया और शरीर को अनुकूलित करने की चेष्ठा करने लगा। कमल भाई पहली बार ट्रैक कर रहे थे, उनको भी यही परेशानी हो रही थी। बाहर रिमझिम बारिश लगातार हो रही थी, जाट देवता की गुफा से भी आवाज़ें आ रही थी। सुमित और जाट देवता भी सही से आराम की स्थिति में नहीं थे। जैसे तैसे सोने की चेष्ठा करने लगा, पूरी रात बामुश्किल एक घण्टे की ही नींद आई होगी।
क्रमशः.....
क्रमशः.....
लक्ष्मीवन में सूर्योदय |
सुबह का नाश्ता |
भागीरथी खड़क ग्लेशियर |
लोमड़ी यहीं आराम फरमा रही थी |
रास्ता दिख रहा है ना ? |
भीम गदा |
सतोपन्थ ग्लेशियर |
पार्वती पर्वत |
नीलकंठ पर्वत से निकलती धाराएं |
यही है सतोपन्थ जाने का नेशनल हाइवे |
ढोंगी योगगुरु |
सहस्रधारा से निर्मित नदी |
वीर तुम बढे चलो |
चक्रतीर्थ |
आओ लद्दू खेलें |
गुफा में किचन |
जाट देवता की गुफा |
इस यात्रा के सभी वृतान्तो के लिंक इस प्रकार
हैं :-
boht he badiya jagah hai, khaaskar sehestradharaye
ReplyDeleteजी निश्चित रूप से।
Deleteयात्रा वित्रांत बहुत बढ़िया और कसा हुआ है . तस्वीरें सब एक से बढकर एक .एक जिज्ञासा है - सभी लोगों ने पिट्ठू बैग उठा रखें हैं तो पोर्टर क्या खाने पीने का सामन ही लेकर चलते हैं लोगों का नहीं ??
ReplyDeleteधन्यवाद नरेश जी। पोर्टर सब सामान ले जाते हैं नरेश जी। बस वजन पंद्रह किलो से ऊपर ना हो। अगर राशन, टेण्ट आदि का ही वजन ही इतना हो तो एक पोर्टर और कर लीजिये, वो आपकी पानी की बोतल भी ले जाएगा। लेकिन ऐसा पर्यटक करते हैं, या तीर्थ यात्री......ट्रैकर्स नहीं। :)
Deleteगजब गुरु।
ReplyDeleteधन्यवाद कमल भाई।
Deleteबहुत बढ़िया यात्रा वृतांत।
ReplyDeleteधन्यवाद ललित सर।
Deleteजान है तो जहान है, पहाड़ तो फिर भी रहेगें.
ReplyDeleteअगर शरीर साथ नहीं देता, तो कोई बात नहीं, अगली बार सही.
जी बिल्कुल, पवन भाई। लेकिन मुझे मालूम है कि मैं बेहाल सूरत में भी कितना चल सकता हूँ। बस इसलिए.....
DeleteHigh altitude sickness होने पर क्या करना चाहिए?
ReplyDeleteमैं AMS (High Altitude Sickness) पर एक पूरी पोस्ट लिख चुका हूँ ब्लॉग में। प्लीज उसको भी पढ़ लीजिये। फिर भी कुछ शंका बचे तो पूछियेगा।
Deleteबहुत सुंदर वर्णन बीनू भाई ..
ReplyDeleteधन्यवाद नट्टू भाई।
Deleteये ग्लेशियर क्या होते है बीनू , क्या ये नदी होते है जमी हुई या पहाड़ होते है समझ नहीं आता। यात्रा वहुत कठिन है अब तो वापस आकर तुमको सही सलामत देख लिया पर उस समय क्या हाल होगा सुनकर हैरानी होती है ।
ReplyDeleteबुआ शार्ट में, कई सौ सालों से जमी हुई बर्फ के मीलों फैले क्षेत्र को ग्लेशियर कहते हैं। बर्फ इतनी ठोस हो चुकी होती है कि उसके ऊपर मिटटी, पत्थर गिर जाते हैं, लेकिन उसको कोई फर्क नहीं पड़ता। इस पूरे ट्रैक पर इसी के ऊपर चलना होता है।
Deleteइसे बोलते है दिल खुश कर देने वाली पोस्ट :-)
ReplyDeleteधन्यवाद।
Deleteआपका वर्णन शानदार होता है बीनुजी बस अगला पार्ट भी जल्दी अपलोड कर दीजिये।
ReplyDeleteधन्यवाद संदीप माथुर भाई।
Deleteखिचड़ी और आम के अचार का कॉम्बो तो हमेशा ही मस्त रहता है, फ़ोटो की तारीफके लिए कोई शब्द ही नहीं है।
ReplyDeleteबिल्कुल हर्षा...धन्यवाद।
Deleteबीनू भाई , मैं खुद भूल गया था इन ग्लेशियर के नाम , फिर से याद दिला दिया ! बंधार , भागीरथी खड़क आदि भूल चुका था ! वो जो लोग रास्ता भूल कर ऊपर की तरफ निकल गए थे , उस वक्त सच में हम सब की सांस अटक गयी थी , लेकिन उस पोर्टर न भी बिलकुल देर नही लगाईं वहां जाने में ! हमें ये भी पता है कि जैसे ही आपको पता चला कि "एक विशेष " ग्रुप आज चक्रतीर्थ पर रुकेगा तब आपके चेहरे का नूर देखने लायक था ! लद्दू में बहुत मजा आया था !!
ReplyDeleteमेरे से ज्यादा नूर आपके और कमल भाई के चेहरे पर था। तभी तो पीछे रहे। मुझे आप दोनों की चिन्ता थी, इसलिए मजबूर होकर धीरे चलना पड़ रहा था।
Deleterastha tho dikh hi nahi raha tha
ReplyDeleteजी महेश जी, असल में रास्ता था ही नहीं।
Deleteबचपन मे गुरुजनो की मेहनत ,और उनके द्वारा सिखाई और लिखवाई गई शुद्व हिन्दी का एक संगम सा प्रतीत होता है लेखक महोदय का यह लेख,
ReplyDeleteपिताजी का स्वंय भी अध्यापक होना और उनके द्वारा भी घर मे कूट कूट कर सुलेख लिखवाना लेखक महाशय को शुद्ध सोना बना गया, फिर हमारा सानिध्य पाकर रही सही कसर भी पूरी हो गई, सचमुच 1 अर्थपूर्ण लेख, शब्दों की शुद्ध अभिव्यक्ति, और हिमालय की खूबसूरती (फोटो के माध्यम से) इस आलेख में चार चांद लगा गई
चल बे...जो इतनी शुद्ध हिंदी में कॉमेंट कर रहा उसके लिए चरण छू मेरे।
Deleteआपको साँस लेने व चक्कर की समस्या आई होगी, फिर आपने क्या किया?
ReplyDeleteकोन से मेडिसिन ली या फिर क्या किया. यह भी बताते तोह अच्छा होता.
बहुत बढ़िया पोस्ट, फोटो तो लाजजबाब है ही
कोई मेडिसिन नहीं ली। बस बेसिक नियम अपनाए सचिन भाई। इस सबके लिए AMS पर पूरी पोस्ट पहले ही लिख चुका हूँ।
Deleteबढ़िया यात्रा वृतान्त बीनू भाई......चित्र शानदार 👌
ReplyDeleteधन्यवाद डॉ साहब.
DeleteAwe-inspiring photos and pretty engaging narration. Another nice post.
ReplyDeleteधन्यवाद रागिनी जी.
DeleteAlso Beenu ji, please link Part 7 here. Thanks.
ReplyDeleteजी कर दिया.
Deleteबढ़िया बढ़िया बीनू भाई
ReplyDeleteडॉ पवन राज्यण