चौथा दिन (दिनांक: 12-12-2016)
सुबह सूर्योदय पूर्व ही नींद खुल गयी.
पहाड़ों पर स्वतः ही यह मेरे साथ होता है अन्यथा दिल्ली में तो जब तक बीबी चार
बातें न सुना दे तब तक आँख क्या कान भी नहीं खुलते. आज उत्तराखण्ड के मैदानी शहर
कालागढ़ तक पहुंचना तय किया था. कोई जल्दबाजी भी नहीं दिखाई, आराम से तैयार होकर
नीचे सड़क पर आ गए. एक-एक चाय पी और बाइक में सामान बाँधने की प्रक्रिया पूर्ण हुई
तो होटल मालिक का हिसाब किताब चुकता कर आगे निकल पड़े.
रात को दीबा डांडा न जा पाने का मलाल था,
सुबह मालूम पड़ा कि इधर ही गुजरू गढ़ी में कुछ पौराणिक अवशेष भी हैं, जिनमे कुछ सुरंग
जैसे निर्माणित हैं. अब दो-दो कारण मिल गए हैं भविष्य में इधर फिर से घुमक्कड़ी के
लिए. पहाड़ों से मैदानों की ओर आओ तो सड़क नदी किनारे-किनारे होकर ही आती है.
रामगंगा नदी हमारे बायीं ओर बहती हुयी हमें तराई क्षेत्र की ओर ले जाने के लिए
रास्ता दिखाती साथ-साथ बह रही थी. सल्ट महादेव का मन्दिर भी दूर से देख आगे बढ़ते
रहे. मार्चुला पहुँचने तक पेट में चूहों ने धमा चौकडी मचानी शुरू कर दी. साथ ही
यहाँ पर हर दूकान में परात में पकते छोले देखकर बाइक की स्पीड खुद ब खुद ही कम हो गई.
शानदार नाश्ता सामने आ गया. मार्चुला
बाजार के प्रसिद्ध छोले और उसमें डाला हुआ खूब सारा पहाड़ी लिम्बू (नींबू). पहाड़ी
नींबू का साइज़ आम तौर पर मिलने वाले नींबू से कम से कम दस गुना बड़ा होता है, रस और
खट्टा इतना कि एक परिवार खाने में यूज़ करे तो एक सप्ताह के लिए एक ही नींबू काफी
है. नींबू निचोड़े हुए छोले-रोटी खाकर तृप्ति हुई तो आगे बढ़ चले. मार्चुला से जिम
कार्बेट नेशनल पार्क की सीमा शुरू हो जाती है जो रामनगर तक बनी रहती है. बंदरों के
सिवा कोई जानवर नहीं दिखा, हाँ जंगल के बीचों बीच गुजरती सड़क से चलने का मजा ही
कुछ और है.
रामनगर से कुछ पहले जिम कार्बेट नेशनल
पार्क के गेट शुरू हो जाते हैं, काफी पर्यटक इन गेट पर अपनी जंगल सफारी की बारी की
प्रतीक्षा करते हुए दिखाई दिए. सब काले महंगे चश्मे वाले थे इसका मतलब अपनी यहाँ
दाल नहीं गलेगी, चुपचाप आगे बढ़ लिए. कुछ आगे चलकर प्रसिद्द माता गार्जिया मन्दिर
का बोर्ड दिखा तो बाइक उधर ही मोड़ ली. मैं पहले भी रामनगर कई बार आ चुका था और
माता गार्जिया के दर्शन भी कर चुका हूँ. फिर भी रामनगर आओ और गर्जिया मन्दिर न जाओ
तो अधूरापन लगता है.
मन्दिर से कुछ पहले प्रसाद बेचने वालों की
दुकानें हैं, एक दुकान पर बाइक खडी कर प्रसाद ले लिया और साथ ही अपने तौलिये वगेरह
भी निकाल लिए. कोसी नदी में डूबकी लगायेंगे. आज मन्दिर परिसर और उसके आस पास काफी
चहल पहल दिखाई दी, मालूम पड़ा यहीं मन्दिर में शादियाँ भी आयोजित की जाती हैं.
दूल्हा और दुल्हन पक्ष के लोग यहीं आ जाते हैं, छोटा सा पांडाल लगाया और यहीं शादी
कर दी. अच्छा है फालतू के दिखावे में क्या रखा है. दो-तीन शादियाँ हो रही थी.
फिलहाल तो हम पैदल ही आगे बढे और कोसी के तट पर जा पहुंचे.
कोसी में नहाकर आनंद आ गया, मैं और शशि भाई तो नहाकर आस पास की फोटो खींचने
लगे वहीँ डोभाल गार्जिया माता के दर्शनों के लिए लम्बी लगी क़तार में लग गया.
मन्दिर प्रांगण में ही एक शादी हो रही थी तो हम दोनों दूर से उस शादी को देखने
लगे. पहाड़ों पर शादियों में शादीशुदा महिलाएं अपनी नाक में नथ पहनती हैं. बारात के
स्वागत के लिए खडी महिलाएं नथ पहनी हुई बड़ी खूबसूरत लग रही थी. कभी हम उनको देखें
कभी उनकी नथ को. बारात भी आ गयी और हम वापिस बाइक के पास आ गए.
कुछ देर बाद डोभाल भी दर्शन कर आ गया तो अचानक से शशि भाई ने गजरोला वापिस
जाने की बात कह डाली. उनका कुछ काम आ गया और गजरोला यहाँ से नजदीक भी पड़ता है. शशि
भाई की इच्छा का सम्मान करते हुए उनको जाने की सहर्ष अनुमति दे दी गयी. काशीपुर से
कुछ आगे तक वो साथ चलेंगे उसके बाद हम अफजलगढ़ की ओर मुड जाएंगे और वो मुरादाबाद की
ओर.
रामनगर से काशीपुर पहुँचने में ज्यादा समय नहीं लगा, दूरी लगभग 25 किलोमीटर की
है. काशीपुर में भीड़-भाड़ देखकर आश्चर्य भी नहीं हुआ. उत्तराखण्ड के तराई वाले
शेत्रों में सभी जगह अब यही आलम है. लोग पहाड़ों से भाग-भाग कर इन शेत्रों में बस
गए हैं. काशीपुर से कुछ आगे जाकर हाईवे पर एक ढाबे में रुककर मैगी खाई इसके बाद
शशि भाई घर की ओर निकल जाएंगे, इसलिए बिछड़ने से पहले कुछ देर इसी बहाने और बतिया
लेंगे.
शशि भाई से विदा लेकर अफजलगढ़ की ओर मुड गए. उत्तराखण्ड की ठीक सीमा पर यह सड़क
आगे बढ़ती है. कभी उत्तर प्रदेश में घुस जाते तो फिर उत्तराखण्ड में आ जाते. अफजलगढ़
पहुँचने तक अँधेरा छा गया था. यहाँ से दाहिनी ओर कालागढ़ की ओर मुड गए. सुबह से
बाइक में बैठे-बैठे हालत ख़राब हो गयी थी, सोचा 12 किलोमीटर दूर कालागढ़ में होटल
में रुक कर आराम किया जाएगा. लेकिन जब कालागढ़ पहुंचे तो होश ही उड़ गए. बाइक से
चलते-चलते कब कालागढ़ शुरू हुआ और ख़त्म भी हो गया मालूम ही नहीं पड़ा.
मैंने बचपन से कालागढ़ का बहुत नाम सुना था. मन में एक तस्वीर सी बनी थी कि
बहुत बड़ा शहर है. लेकिन यहाँ तो स्थिति बिल्कुल उलट निकली. कुल जमा दस दुकानें सड़क
किनारे पर हैं. रात को रुकने के लिए होटल वगेरह के बारे में पूछा तो मालूम पड़ा
यहाँ एक भी होटल नहीं है. या तो 60 किलोमीटर वापिस काशीपुर जाओ या अफज़लगढ़ में देख
लो कुछ मिल गया तो.
हमारे पास टेंट व स्लीपिंग बैग दोनों थे, लेकिन एक जंगली हाथी अभी-अभी टहलता
हुआ यहाँ मुख्य सड़क पर आ गया था, स्थानीय निवासियों ने बड़ी मुश्किल से उसे वापिस
जंगल में खदेड़ा है. अब क्या किया जाए, तभी एक स्थानीय निवासी ने बताया कि यहाँ एक
गुरुद्वारा है, वहां मालूम कर लो शायद रुकने की कुछ व्यवस्था हो जाए. तुरन्त बाइक
को बताई गई दिशा में मोड़ दिया. दो सौ मीटर आगे ही गए थे कि घनघोर अँधेरे के साथ
खतरनाक कच्चे रास्ते और घनी झाड़ियों ने स्वागत कर डाला. न भाई यहाँ से तो पूरी रात
भटकते ही रह जाएंगे, बाइक मोडी और वापिस मुख्य सड़क पर आ गए.
कुछ समझ नहीं आ रहा था तभी डोभाल के दिमाग की बत्ती जली एक किताबों की दूकान
पर जाकर पूछताछ की तो मालूम पड़ा यहाँ वन विभाग का गेस्ट हाउस है लेकिन उसमें अभी
निर्माण कार्य चल रहा है और वैसे भी बाहरी लोगों को वो अपने यहाँ नहीं रुकवाते.
फिर भी जाकर पूछने में हर्ज़ क्या है. पूछते हुए गेस्ट हॉउस में पहुंचे तो वहां के
चौकीदार ने पहले तो मना कर दिया, फिर जब उनको आपबीती बताई और यह भी कहा कि हमारे
पास स्लीपिंग बैग हैं सिर्फ सर के ऊपर छत चाहिए तो उन्होंने छत की ओर इशारा कर
दिया, देखा तो ऊपर से छत ही गायब हो रखी है.
कोई बात नहीं चार दीवारें तो है, हाथियों से तो बचे रहेंगे. कुछ तो घुमक्कड़ी
अनुभव और कुछ हमारे उत्तराखंडी होने का फायदा हुआ कि बुजुर्ग चौकीदार को मनाने में ज्यादा
समय नहीं लगा. उन्होंने हमें गेस्ट हाउस के किचन में रुकने की अनुमति दे दी. जल्दी
से डाइनिंग हाल में सामान रखा और कुछ खाने के लिए ले आयें इसलिए एक बार फिर बाजार
की ओर चल दिए.
बाजार से खाना पैक करवाते समय सामने मधुशाला दिख गयी. चौकीदार का एहसान चुकाने
का सर्वोत्तम तरीका भी नजर आ गया, लेकर वापिस गेस्ट हाउस पहुँच गए. खाने के साथ-साथ
जब सब मिल बैठ कर गप्पें लड़ाने लगे तो मालूम पड़ा रावत जी (चौकीदार) तो मेरे गाँव बरसूडी भी जा चुके हैं, क्यूंकि उनके गाँव
से वहां बारात गई थी तो उनकी रिश्तेदारी है. फिर क्या था, हमारे बेडरूम किचन से
शिफ्ट होकर सीधे उनके व्यक्तिगत कमरे में शानदार पलंग में शिफ्ट हो गया. चलो अब
रात आराम से कटेगी कल कलागढ का विश्व प्रसिद्द डैम देखकर घर वापसी करेंगे.
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जडाऊखांद |
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दूर दिखता हुआ धुमाकोट |
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रास्ते में - काली मन्दिर |
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सल्ट महादेव |
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रामगंगा घाटी |
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मार्चुला में नाश्ता |
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शशि चड्ढा व डोभाल |
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जिम कार्बेट के रास्ते पर |
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किधर जाएँ |
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जिम कार्बेट गेट |
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कोसी नदी |
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माँ गर्जिया मन्दिर |
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कोसी नदी |
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गार्जिया मन्दिर में दुकानें |
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शशि भाई |
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शादी का पंडाल |
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बारात का स्वागत |
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बारात आती हुई |
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रामनगर की ओर |
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काशीपुर |
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काशीपुर |
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कालागढ़ की ओर |
यात्रा विवरण बहुत ही बढ़िया है बिनु भाई
ReplyDeleteएक और बात शेत्र को हटा के क्षेत्र कर दो
जय गूगल बाबा की, कर दिया.
Deleteबीनू भाई मस्त लिखा है। आगे की पोस्ट का इंतजार रहेगा।
ReplyDeleteधन्यवाद त्यागी जी.
Deleteअंगूर की बेटी की बात ही कुछ और है क्ई बार बिगड़े काम बना देती है।😂😂😂
ReplyDeleteदुरस्त बात.
Deleteकाशीपुर मैं बहुत पहले गया था शायद 1997 में ! मुझे एक तो वहां की हरियाली पसंद आई थी और दूसरा वहां के लोग धान की दो फसल ले लेते हैं , फिर दोबारा गया पशुपति फैब्रिक्स में इंटरव्यू देने और जसपुर भी गया ! सूर्या रौशनी लिमिटेड में मित्र के पापा जनरल मैनेजर हुआ करते थे तो उनके सहयोग से लगभग आसपास का बहुत कुछ देखा था ! अब पोस्ट की बात बीनू भाई , दो चार साल बाद आपके ब्लॉग की एक खासियत बन जायेगी कि जब भी कोई उत्तराखंड के बारे में जानना चाहेगा , हर कोई कहेगा रमता जोगी का ब्लॉग पढ़ लो ! शुभकामनाएं आपको , लेकिन इसके लिए आपको बिना किसी संकोच के लिखते रहना होगा !!
ReplyDeleteधन्यवाद योगी भाई.
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