Monday 16 January 2017

कल्पेश्वर-रुद्रनाथ यात्रा (दूसरा दिन) - ठुमुक-ठुमुक के चल दुमुक

हेलंग-कल्पेश्वर-दुमुक(ठुमुक-ठुमुक के चल दुमुक)

सुबह पांच बजे का अलार्म लगाकर सोये थे लेकिन उसकी जरुरत ही नहीं पड़ी, पहले ही नींद खुल गयी और साथ ही सभी को जगा दिया छह बजे तक सभी तैयार होकर जीप वाले की प्रतीक्षा करने लगे, जीप वाले की क्या गाय की प्रतीक्षा करने लगे। असल में गाय के मालिक ने ऊपर किसी गाँव से गाय को लेकर आना था और उसे देवग्राम तक छोड़ना था। काफी देर प्रतीक्षा करने के बाद भी जब गाय नहीं पहुंची तो जीप मालिक ने गाय मालिक को फोन लगाया, मालुम पड़ा गाय आज नहीं जायेगी। फिर से जीप मालिक को तैयार किया कि कोई बात नहीं एक जन्तु ही तो कम हुआ, पांच तो चल ही रहे हैं, इन पांच को तो छोड़ आओ। जीप मालिक ७००/= रुपये में चलने को तैयार हो गया। अमित भाई और डोभाल ने आगे ड्राईवर के साथ वाली सीट पर कब्ज़ा कर लिया। मैं, महेश जी और मिश्रा जी पीछे खुले वाले स्थान पर खड़े होकर यात्रा करेंगे। इस तरह खुले ट्रक में यात्रा करने का भी अलग ही आनंद है।

हेलंग से उर्गम घाटी के लिए १२ किलोमीटर आगे ल्यारी गाँव तक सड़क बनी है। शानदार नज़ारे हेलंग से आगे बढ़ते ही शुरू हो जाते हैं। दाहिनी और कल्पगंगा (हिरणांवती) नदी बहती हुयी बहुत खूबसूरत लगती है। आधे घण्टे में जीप से ल्यारी गाँव पहुँच गए। ल्यारी से ही कल्पेश्वर के लिए पैदल जाया जाता है। हमारी भी विधिवत ट्रैकिंग की शुरुवात यहीं से हो गयी। ल्यारी से कुछ आगे चलते ही पंचधारा नामक जगह पड़ती है। पांच अलग-अलग सिंह रुपी मुहँ से शीतल जलधारा बहती रहती है। पंचधारा से ही बड़गिन्डा गाँव की सीमा प्रारम्भ हो जाती है। उर्गम घाटी का ये गाँव बहुत ही खूबसूरत गाँव है। यहीं पर पांच बद्री में से एक ध्यान बद्री का मन्दिर स्थित है। भगवान विष्णु चतुर्भुज रूप में यहाँ विराजमान हैं। जब हम मंदिर परिसर में पहुंचे तो दरवाजे पर ताला लगा हुआ था। पास ही छोठेे बच्चे खेल रहे थे, उनसे दर्शन हेतु पूछा तो एक छोटी सी बच्ची जाकर चाभी ले आयी। उसी ने ताला खोलकर हमको दर्शन करवाये और टीका लगाया। ध्यान बद्री के दर्शनोपरान्त आगे बढे तो कुछ दूरी पर उर्गम घाटी का दूसरा गाँव देवग्राम पड़ता है। इस घाटी में खेती भरपूर होती है, खूब हरे भरे खेतों के बीच से गुजरते हुये रास्ता जाता है। अन्यथा उत्तराखण्ड में अक्सर उजड़े खेत-खलियान ही देखने को मिलते हैं। हरे-भरे खेत इस घाटी की सुन्दरता में चार चाँद लगा रहे थे।

सुबह बिना नाश्ता किये ही हेलंग से निकल पड़े थे, हालांकि ये मालुम था कि देवग्राम में एक लॉज है, जिसमें रहने खाने की उप्लब्धतता है। कल्पेश्वर जाते हुए रास्ते में ही ये लॉज पड़ता है। यहाँ पहुंचे तो लॉज मालिक ने कहा कि आप लोग कल्पेश्वर के दर्शन कर आओ, तब तक वो गर्मागर्म रोटी और सब्जी तैयार कर देंगे। देवग्राम से लगभग डेढ़ किलोमीटर की दुरी पर स्तिथ कल्पेश्वर के दर्शन के लिए मन वैसे ही मचल रहा था। तेज कदम खुद खुद उस ओर बढ़ चले। कल्पगंगा के किनारे पर स्तिथ कल्पेश्वर से ठीक पहले एक बड़ा सा झरना जैसे हम सबका स्वागत करता हुआ मिला। बड़ा ही मनभावन दृश्य यहाँ से दिखायी पड़ता है। अनेकाएक रंग-बिरंगी तितलियाँ इस छोठे से क्षेत्र में मंडराती दिखायी पड़ती हैं। कल्पगंगा पर एक लकड़ी का काम चलाऊ पुल बना है, पक्का पुल टूट चूका है। कल्पगंगा को पार करते ही कल्पेश्वर का प्रवेश द्वार आता है।

कल्पेश्वर समुद्र तल से २१३४ मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। पंच केदार के इस पांचवें केदार में भगवान् शिव की उलझी जटाओं को पूजा जाता है। किसी समय यहाँ पर कल्पवृक्ष हुआ करता था जिसके नीचे बैठकर दुर्वाषा ऋषि तप किया करते थे। पुराणों के अनुसार भगवान् इंद्र ने दुर्वाषा ऋषि के श्राप से मुक्ति पाने के लिए यहीं पर भगवान् शिव को प्रसन्न करने के लिए तप किया था। जिसके पश्चात उनको कल्पतरु प्राप्त हुआ था। एक छोठी सी गुफा में भगवान् शिव की जटाएं स्वयंभू विराजमान हैं। बड़ी सी चट्टान पर जटाओं की उभरी आकृति साफ़ दिखायी पड़ती है। इसी चट्टान के साथ में पवित्र कलेवर कुंड है, जिसका जल निरंतर बहता रहता है। पंडित जी ने हम सबकी ओर से पूजा-अर्चना की, और प्रसाद दिया। मन्दिर परिसर में पांडवकालीन अवशेष भी दिखायी पड़ते हैं। कुछ देर भ्रमण के बाद बाबा जी की कुटिया में आये तो वहां चाय तैयार मिली। चाय पीकर, बाबा जी ने बड़े ध्यान से रुद्रनाथ तक जाने का रास्ता समझाया। कुछ देर रूककर बाबा जी से विदा ली, और देवग्राम के लिए वापसी हो लिए। पंद्रह मिनट में वापिस देवग्राम पहुंच कर गर्मागर्म रोटी, स्थानीय सब्जी और चाय मिल गयी। यहीं से दिन का भोजन भी पैक करवा लिया। नाश्ता करने के बाद चढ़ाई चढ़ने के लिए कमर कस ली, असली परीक्षा तो अब शुरू होनी थी। आज हमको यहाँ से अच्छी खासी चढ़ाई और उतराई पार कर दुमुक गाँव पहुँचना था।

देवग्राम (१९८० मीटर) से दुमुक जाने के लिये खंबदौरी खाल (३०५० मीटर) तक खड़ी चढ़ाई है, जो तुरन्त ही शुरू हो जाती है। मैं, महेश जी और मिश्रा जी सबसे पहले निकल पड़े। देवग्राम के होटल में ही तीन-चार लाठियां पड़ी दिखी, सभी को एक-एक लाठी उठाने को कह दिया। धूप बहुत तेज लग रही थी। सुबह के दस बजे भी चलते-चलते अच्छा खासा पसीना बह रहा था। आधा किलोमीटर ऊपर चढे थे कि एक पानी का छोठा सा सोता मिल गया। अपने गमछे को गीला कर सर पर लपेट लिया, जिससे धूप से कुछ तो राहत मिलेगी। यहाँ से एक किलोमीटर आगे बांसा गाँव पड़ता है। बांसा गाँव में उर्वाषा ऋषि का मंदिर है। उन्ही के नाम पर इस घाटी का नाम उर्गम घाटी पड़ा। यहाँ पर हमसे एक चूक हो गयी, एक छोटा सा पहाड़ी नाला पड़ता है, हमको उसके दाहिनी और ही चलते रहना था। लेकिन हम पुलिया पार करके दुसरी ओर से आगे बढ़ गए। बांसा गाँव से नंदा देवी चोटी के शानदार दर्शन होते हैं। कुछ ऊपर चढ़ने के बाद छोठा सा बुग्याल आता है। रास्ता दोनों ओर अच्छा बना है, इसी वजह से हम बजाय दायीं ओर जाने के इधर से गए। इस बुग्याल के बाद दोनों रास्ते मिल जाते हैं। यहाँ से सीधी चढ़ाई के साथ घनघोर बांज-बुरांश का जंगल शुरू हो जाता है। जंगल में प्रवेश करते ही तीखी धूप से राहत मिली, आराम से और मस्ती में चढ़ाई पर चढ़ते जा रहे थे। इसी चढ़ाई पर डोभाल ने अपना रूप दिखाया और पूरे ग्रुप को आज पहले दिन का टैग लाइन दे दिया "ठुमुक-ठुमुक के चल दुमुक" फिर तो जो भी थका हुआ दिखायी देता उसका उत्साह वर्धन इन्ही शब्दों के साथ किया जाता।

लगातार ऊपर चढ़े जा रहे थे, एक विदेशी ट्रैकर अकेले नीचे उतरते हुए भी मिले। बहुत खुश थे, दुमुक से आज सुबह चले थे, शाम तक जोशीमठ जाने का इरादा है। उनके हौसले को देखकर बहुत ख़ुशी हुयी। कुछ आगे पहुँच कर रिट्ठी बुग्याल आता है। खूबसूरत जगह है, छोटा सा बुग्याल क्षेत्र, चारों ओर घने देवदार और बुरांश के जंगल से घिरा हुआ। भूख भी लगने लगी थी, पानी भी यहाँ पर प्रचुर मात्रा में उपलब्ध था। फिर भी सभी ने सोचा कुछ और चढ़ाई चढ़कर आगे भोजन करेंगे। खड़ी चढ़ाई जो देवग्राम से शुरू हुयी थी लगातार बनी ही रहती है। दो बजे जब भूख चरम सीमा पर पहुँच गयी तो नौला पास से कुछ पहले भोजन किया। सब्जी, रोटी, चटनी और सलाद होटल वाले ने पैक करके दिया था। कुछ देर आराम करने के बाद फिर से चढ़ाई शुरू कर दी जो खंभदौरी खाल पर जाकर ही समाप्त हुयी।  कल्पेश्वर से खंभदौरी खाल की दूरी लगभग आठ किलोमीटर है। इस आठ किलोमीटर में हम ११०० मीटर ऊपर चढ़ चुके थे। इसी से चढ़ाई का अंदाजा लगाया जा सकता है। खंभदौरी खाल से अब दूसरी घाटी में उतरना था, दूर नीचे कलगोट गाँव दिखायी पड़ रहा था।

उतराई में सभी की चाल भी तेज हो गयी, जंगल के बीच से लगातार नीचे उतरना शुरू कर दिया। अमित भाई और डोभाल सबसे आगे चले जा रहे थे। जबकि मैं, मिश्रा जी और महेश जी आराम-आराम से पीछे चल रहे थे। बिना रुके उतरते गए, कलगोट से कुछ पहले एक जगह आराम करने के लिए बैठ ही रहे थे कि डोभाल ने आवाज लगायी, "यहाँ आओ कुछ दिखाता हूँ" वहां पर कुछ टेण्ट लगे थे, मालूम पड़ रहा था कोई ट्रैकिंग ग्रुप रुका हुआ है। मैंने भी डोभाल से पुछा कि "जादू दिखायेगा क्या?" उसने उधर से जबाब दिया "हाँ" हम तीनों उठकर जब वहां पहुंचे तो अमित भाई ने टेण्ट के अन्दर बैठे एक सज्जन की और इशारा करके पुछा कि इनको पहचानो ? उनको देखते ही मैं आवाक रह गया। ये सज्जन थे महान ट्रैकर श्री हरीश कपाड़िया जी। हम सभी उनसे मिलकर बहुत खुश हुए। हरीश जी ने भी सभी का बड़ी आत्मीयता से स्वागत किया। सभी को जूस पिलाया और अपने अनुभव साझा किये। हरीश जी की लिखी एक नयी पुस्तक अभी हाल ही में बाजार में भी आयी है, जिसमें उन्होंने अपने १५१ ट्रैक का अनुभव साझा किया है। हम सभी खुशकिस्मत थे कि इतने महान ट्रैकर से ऐसे मिलना हुआ। कुछ समय हरीश जी के साथ ब्यतीत करने के बाद विदा लेकर आगे बढे, अँधेरा होने में ज्यादा समय नहीं बचा था। दूर धार पर दुमुक गाँव दिखायी पड़ रहा था। अनुमान लग रहा था कि दो घण्टे में दुमुक पहुँच जाएंगे। उतराई अभी भी लगातार बनी हुयी थी।

कलगोट पहुँचते ही अँधेरा छाने लगा। अभी भी पांच किलोमीटर की दूरी तय करनी बाकी है। कलगोट के बाद उतराई ने और भी भीषण रूप धारण कर लिया, और रास्ते के तो क्या कहने। महेश जी अब तक काफी थक चुके थे, उनकी चाल बहुत ही धीमी हो गयी थी। लगातार एक किलोमीटर की उतराई के बाद एक पहाड़ी नदी को पार करके दूसरी ओर जैसे ही आगे बढ़ने लगे भू-स्खलन की वजह से पूरा रास्ता ही गायब मिला। जैसे-तैसे इस भू-स्खलित क्षेत्र को अँधेरे में टोर्च की रौशनी में पार करके ऊपर पहुंचे तो महेश जी के पैरों ने जबाब दे दिया। मैं ऐसी परिस्थितियों से अच्छे से वाकिफ हूँ, इसलिए किसी तरह महेश जी का हौसला बढ़ाने की कोशिश करता रहा। उनका बैग डोभाल को ले जाने के लिए बोल दिया, और डोभाल का और खुद का बैग लेकर आगे बढ़ने लगे। आज सुबह जब हम नौला पास की चढ़ाई चढ़ रहे थे तो दुमुक निवासी मनीष हमको रास्ते में उतरते हुए मिला था। उसने हमसे दुमुक में होम स्टे के बाबत पुछा, और फिर अपने घर पर रुकने का निमंत्रण दिया। सब कुछ हमने मनीष से तभी तय कर लिया था। साथ ही यह भी बोल दिया था कि वो अपने घर पर फोन से हमारे पहुँचने की सूचना पहुंचा दे। अँधेरे में जब हम आगे बढ़ रहे थे तो दूर धार से एक टोर्च की रौशनी दिखायी दी, तभी हम समझ गए कि मनीष के घर से कोई हमारी खोज में गया है। अँधेरे में संभल कर आगे बढ़ते रहे, महेश जी की हालत बहुत ही ज्यादा ख़राब हो गयी थी। अब सिवाय चलते रहने के कोई दूसरा उपाय नहीं था। जैसे-तैसे साढ़े नौ बजे दुमुक पहुंचे। थकान सभी को हो रही थी, सुबह से २१ किलोमीटर की चढ़ाई-उतराई करके यहाँ पहुँचे थे। जल्दी से रात्रि का भोजन किया, और आराम करने लगे।

क्रमशः.....
इस यात्रा वृतान्त के अगले भाग को पढने के लिए यहाँ क्लिक करें.

चलें उर्गम घाटी की ओर
बड़गिन्डा गाँव
पंचधारा
मेहनतकश पहाड़ी नारी
देवग्राम
ध्यान बद्री
घास लाने का पिट्ठू
मेहनतकश पहाड़ी नारी
केदार मन्दिर
नन्हा ट्रैकर
आपदा के निशान
कल्पेश्वर महादेव
चट्टान पर शिव जटाओं की आकृति
कलेवर कुण्ड
शिवलिंग
देवग्राम में नाश्ता
दिन का भोजन
देसी जुगाड़
हरीश कपाड़िया जी के साथ
कलगोट

23 comments:

  1. बढ़िया लेख बीनू भाई मिश्रा जी सूना था इसका विवरण आप की लेखनी से और मजा आया सुंदर फ़ोटो

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  2. बढ़िया लेख बीनू भाई मिश्रा जी सूना था इसका विवरण आप की लेखनी से और मजा आया सुंदर फ़ोटो

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  3. aap ki post padh kar dubara sabkuch nazaron ke samne aa gaya , har din ek challenge bhara tha, waiting for next post .................

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    1. जी महेश जी, शानदार ट्रैक है ये.

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  4. बड़ा सरल स्वभाव विवरण है.. मानो हम आपके साथ ही चल रहे है

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  5. ये बताओ.. गाड़ी कहां तक जाती है और कुल कितना पैदल चलना है कल्पेश्वर के लिये

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    1. ल्यारी गाँव तक आराम से गाडी से जा सकते हैं। वहां से 2 किलोमीटर आगे कल्पेश्वर है। बहुत आसान रास्ता है। बीच में देवग्राम में रुकने के लिए अच्छा लॉज बना है। आप और मैडम आराम से जा सकते हैं।

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  6. बढ़िया लेख बीनू भाई. अगले भाग का इंतजार रहेगा .

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  7. आप ने ब्लॉग में बहुत जल्दी डुमुक पंहुचा दिया :) ,मेरा वजन ईतना कम हो गया ट्रेकिंग से सोचा न था ;)

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  8. बहुत विस्तार से बताया आपने, जाने वालों को बहुत आसानी होगी यह पोस्ट पढ़कर।

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  9. गजब वर्णन बीनू भाई । ट्रेकिंग का लेख पड़ते हुए इसी में खो गए और आपने तो ट्रेक रात के साढ़े नौ बजे पूरा करके दुमुक पहुँचे ।। बस यही रात का सफर खतरनाक होता है कोशिश कीजिये इससे बचा जा सके ।

    लेख ने वही होने का वास्तविक अहसास भी करा दिया ।
    बढ़िया विवरण और शानदार चित्र ।

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    1. जी रितेश भाई, पहाड़ों में पूरी कोशिश रहती है कि रात के वक्त न चलना पड़े। लेकिन कभी-कभी मज़बूरी वष चलना पड़ जाता है।

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  10. हाँ ये भी ठीक रहा कि गाय नहीं आई नहीं तो आप जैसे जंतु कहाँ ? और कैसे बैठ के जाते !! मस्त विवरण भाई

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    1. बैठते भाई कुछ जुगाड़ लगाकर, या एक दो दुलत्ती खानी पड़ती।

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  11. बढ़िया विवरण और लाजवाब फोटो। हरीश कपाड़िया जी के विषय में अभी तक अनजान था लेकिन आज पता चल गया। वाकई प्रेरक व्यक्ति हैं। फोटो में बूढ़े बाबा का फोटो मस्त है। उन्हें देखकर पुरानी कुंग फू मूवी का ख्याल आता है। मुझे लगा अभी उठाकर कुंग फू न करने लगे। बेहतरीन।
    मन में एक प्रश्न था। क्या ये ट्रेक अकेले की जा सकती है? यानी ट्रेक में खोले का खतरा तो नहीं??मैं जरूर इसे करना चाहूँगा।

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    1. माफी चाहूंगा देरी से उत्तर देने की विकास भाई। जी इस ट्रैक को इस ओर से अकेले ना ही करने की सलाह दूंगा, घना जंगल है, जंगली जानवरों का रिस्क तो है ही फिर एक दो जगह भटकने के चांस भी हैं। हालांकि एक बार पनार बुग्याल पहुंच गए फिर तो अच्छा खासा रास्ता बना है।

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