Friday 11 March 2016

हर की दून ट्रैक:- ओसला से हर की दून


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ओसला से हर की दून


सुबह पाँच बजे का अलार्म लगाकर सोये थे, लेकिन अलार्म की जरुरत ही नहीं पड़ी। उससे पहले ही नींद खुल गयी। बड़ी अच्छी नींद आई, लकड़ी के घर वाकई में ठण्ड को बढ़िया से रोकते हैं। बाहर अँधेरा था, फिर भी फ्रेश होकर कपडे पहन लिए। बलबीर जी ने चाय-नाश्ता और आठ पराठें दिन के भोजन के लिए कमरे में पहुंचा दिए। मनु भाई का मन था कि अँधेरे में ही निकल पड़ते हैं, लेकिन मैं पौ फटने के बाद ही निकलना चाहता था। 


इसके मुख्य कारण ये थे कि हम दोनों इस क्षेत्र से अनजान थे। रास्ता वैसे बलबीर जी ने समझा दिया था फिर भी अँधेरे में भटकने का खतरा तो होता ही है। दूसरा जंगली जानवरों का यही समय होता है, जब वो गाँव के आस-पास तक आ जाते हैं, सूर्योदय के साथ-साथ जानवर भी जंगलों में चले जाते हैं। मनु भाई के बार-बार कहने पर भी मैं तैयार नहीं हुआ, वैसे भी भेड़ों की यहाँ कोई कमी नहीं थी। बाघ राज पता नहीं किस कोने में दुबके मिल जाएँ। खुद मेरा गाँव भी जंगल के बीचों बीच है, इसलिए मुझे अनुभव है, जानवरों की हरकतों का। मनु भाई के बार-बार कहने पर भी मैं तैयार नहीं हुआ। रजाई ले के वापिस दुबक गया। जिससे मनु भाई को लगे कि मैं फिर से सो गया। और उनकी अँधेरे में ही निकलने की रट पर पूर्ण विराम लग जाये। हुआ भी कुछ ऐसा ही, अब मैं उजाला होने की प्रतीक्षा करने लगा।

सात बजे हल्का सा उजाला होते ही हम दोनों निकल पड़े। बलबीर जी को बता दिया था कि अगर शाम को अँधेरा होने तक हम वापिस ना आ पायें तो कुछ आगे तक आप हमारी खोज में आ जाना। वैसे टोर्च हमेशा साथ लेकर चलता हूँ। इस ट्रैक पर कलकत्ती धार की चढ़ाई का नाम बड़ा सुना था। कलकत्ती धार ओसला से साफ़ दिखता है। बलबीर जी ने भी यही कहा कि उस तक पहुँच जाओ, उसके बाद रास्ता आसान है। दिखने से तो ऐसा लग रहा था कि अभी एक घण्टे में कलकत्ती धार पर हूँगा। 

ओसला से आसान रास्ते से शुरुवात हुयी। आज सुपिन नदी हमारे दाहिने हाथ की ओर काफी नीचे बह रही थी, उससे भेंट सीधे हर की दून में ही होनी है। हर की दून तक हमको कहीं भी सुपिन नदी को पार नहीं करना था। सुबह-सुबह जंगली जानवरों की वजह से चौकन्ना होकर चलना चाहिए। अक्सर जानवर जब कभी अचानक मिल जाते हैं, तभी आत्मरक्षा के लिए हमला करते हैं। अगर जानवरों को दूर से भनक मिल जाये तो वो खुद ही भाग खड़े होते हैं। दूसरी ओर के पहाड़ बर्फ की वजह से बहुत खूबसूरत लग रहे थे। शुरुवात में चलने की गति भी अच्छी-खासी रखी और तय किया था कि हर हाल में एक बजे तक हर की दून पहुँचना है। वहां एक घण्टा रुक कर दो बजे भी वापिस चलेंगे तो अँधेरा होने तक ओसला पहुँच ही जाएंगे। लगभग २८ किलोमीटर आना-जाना था। 

लेकिन जैसे-जैसे ऊँचाई बढ़ती जाती है, निश्चित ही ऑक्सीज़न कम होती जायेगी। शरीर को ज्यादा मेहनत करनी पड़ेगी, इसलिए थकान भी ज्यादा होगी। हर की दून घाटी को दूसरी फूलों की घाटी भी कहा जाता है। अभी तो पतझड़ का मौसम है, लेकिन बसन्त के बाद से वर्षा ऋतू के बाद तक इस घाटी की सुन्दरता अपने चरम पर होती है। भाँति-भाँति के फूल इस घाटी में पाये जाते हैं। मैं जब भी फिर से यहाँ आऊंगा तो दुबारा उसी समय का चुनाव करूँगा। पहाड़ हर मौसम में अपना रंग बदलता है। 

ओसला से तीन किलोमीटर आगे पहुँचने के बाद सूर्य देव ने अपने दर्शन दिए। चलते-चलते गर्मी भी लगने लगी। कलकत्ती धार से ठीक पहले समतल सी जगह आती है। कैम्पिंग साइड के निशान दिख रहे थे। सुबह अच्छे से नाश्ता नहीं किया था, सोचा पहले पेट पूजा कर लें, फिर कलकत्ती धार की चढ़ाई नापी जायेगी। एक-एक पराँठा खाकर आगे बढ़ चले। 

इस ट्रैक पर कई बार मुझे दूरी भ्रम हुआ। पहले सुपिन से ओसला तक दूसरा ओसला से कलकत्ती धार, और तीसरा अब। ऐसा लग रहा था ये तो छोठी सी चढ़ाई है, दस मिनट में पार कर लूंगा। लेकिन जब चढ़ने लगे तो नानी याद आ गयी, ख़त्म ही ना हो। चढ़ते-चढ़ते जब सबसे ऊपरी भाग पर पहुंचे तो मनु भाई ने कहा, यहाँ पर एक-एक प्रोफाइल पिक्चर तो बनती है। बर्फीली हवा भी सीधे चुभ रही थी। साथ लाये ड्राई फ्रूट खाये और आगे बढ़ चले। यहाँ से हल्की-हल्की उतराई है जो अगले दो किलोमीटर तक बनी रहती है। 

हर की दून ट्रैक की एक खासियत है, जहाँ तालुका लगभग २००० मीटर की ऊँचाई पर है, हर की दून की ऊँचाई ३५५० मीटर है। दूरी लगभग २८ किलोमीटर है। इस लिहाज़ से चढ़ाई ज्यादा नहीं है, लेकिन अभी कलकत्ती धार चढ़े तो इस दो किलोमीटर के रास्ते ने फिर से नीचे उतार दिया। अब आगे वापिस चढ़ना होगा, यही सिलसिला चलता रहता है। मनु भाई बोल ही रहे थे, जब उतारना ही था तो खामखाँ चढ़ाया क्यों ? नीचे उतरते ही रास्ते पर एक झरना मिला जो जमा हुआ था। अब बर्फ भी मिलनी शुरू हो गयी थी, एक लकड़ी की पुलिया बनी है जिसके तुरन्त बाद फिर से चढ़ाई शुरू हो जाती है। यहीं पर ट्रैकर लोगों ने एक बर्फ का पुतला भी बनाया हुआ था। 

इस वर्ष जलवायु परिवर्तन के कारण अन्य वर्षों की तुलना में हिमालय में बहुत कम बर्फ़बारी हुयी है। अन्यथा साल के इस समय हर की दून तक पहुँच पाना ही बहुत मुश्किल माना जाता है। इस बात की निराशा मुझे भी हुयी, जनवरी में बर्फ से लदे पहाड़ों को देखने आया था लेकिन वो सब नदारद मिला। इससे आगे रास्ते पर काली बर्फ (Black Ice) मिलने लगी, जो कि चलने में खतरनाक मानी जाती है। 

ये ब्लैक आइस क्या है ? इसको समझाने का प्रयास करता हूँ। ऊंचाई वाले क्षेत्रों में जब बर्फ़बारी होती है तो जमीन के कुछ हिस्से ऐसे होते हैं, जिसपर पेड़ों की वजह से धूप नहीं पड़ती। इस वजह से बर्फ भी पिघल नहीं पाती और जम कर ठोस शीशे के समान हो जाती है। धीरे-धीरे उसके ऊपर मिट्टी की पर्त जम जाती है। रास्ते में चलते हुए हमको यही लगता है कि हम मिट्टी के ऊपर ही चल रहे हैं, जबकि असल में हम ठोस बर्फ के ऊपर चल रहे होते हैं, और इसमें फिसलने का सबसे अधिक खतरा होता है। 

आराम से चढ़ते गए और जब ऊपर पहुंचे तो ये क्या ? फिर से उतराई शुरू। सुपिन नदी जिसको कल शाम को हम ओसला से पहले छोड़ आये थे, और आज सुबह से दूर काफी नीचे बह रही थी वो भी पास-पास आने लगी। घाटी के दूसरी ओर करीब एक फ़ीट बर्फ की चादर फ़ैली पड़ी थी। उधर धूप कम पड़ती है इसलिए ज्यादा बर्फ थी। जिस ओर हम चल रहे थे यहाँ ना के बराबर ही बर्फ पड़ी मिली। 

आराम से उतरकर घाटी में पहुँच गये, लगा बस हर की दून पहुँच ही गए। खूबसूरती तो चारों और बिखरी पड़ी ही थी। और रास्ता घाटी के साथ-साथ समतल जगह से होकर गुजरता है। यहीं पर सीमा से होकर आने वाला रास्ता भी मिल जाता है। कुछ देर आराम करने के लिए एक पत्थर पर बैठ गया। हम दोनों को लग रहा था कि पहुँच गए, तभी मेरी नजर एक पत्थर पर पड़ी, जिस पर लिखा हुआ था हर की दून २.५ किलोमीटर। पीछे से मनु भाई भी आकर रुक गए। और ऐसे ही बोल पड़े "अभी कितना और दूर होगा ?"। मैंने लिखे हुए पत्थर की ओर इशारा कर दिया। 

थकान के मारे हालत ख़राब हो रही थी, लेकिन सिवाय आगे बढ़ने के कोई दूसरा विकल्प भी नहीं था। यहाँ से स्वर्गारोहिणी के दर्शन होने लगे थे, इसलिये हम भी अनुमान ही लगा रहे थे कि हर की दून ठीक इसी के नीचे होगा। इस २.५ किलोमीटर में कोई ज्यादा चढ़ाई नहीं है, लेकिन हर की दून देखने की लालसा में ये दुरी कई गुना ज्यादा लग रही थी। कुछ साँस भी जल्दी जल्दी चढ़ने लगी तो समझ भी आ गया कि लगभग ३५०० मीटर की ऊंचाई तक तो पहुंच ही गये। 

यहाँ से मनु भाई आगे-आगे चलने लगे। कुछ आगे चलकर एक बड़ा सा नाला मिला, ये भी काफी हद तक जमा हुआ था। हल्की सी चढ़ाई फिर शुरू हो जाती है, करीब आधा किलोमीटर आगे चलकर मनु भाई एक ऊंचे से पत्थर पर बैठे मिले। मेरे को देखते ही उन्होंने ईशारा किया कि पहुँच गए। एकदम से शरीर में जान आ गयी, तेज कदमों से मनु भाई के पास पहुंचा तो घाटी की खूबसूरती को देखकर आवाक रह गया।

क्रमशः.....

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सीमा 




दूसरी और पहाड़ पर बर्फ

दूसरी और पहाड़ पर बर्फ

शानदार नज़ारे

कलकत्ती धार से 



खतरनाक रास्ता



घाटी में प्रवेश



कलकत्ती धार 

दिन का भोजन 



हर की दून घाटी

हर की दून घाटी

कलकत्ती धार 

कलकत्ती धार

कलकत्ती धार

कलकत्ती धार

हर की दून घाटी

स्वर्गरोहिणी सामने दिखता हुआ 

हर की दून में स्वागत है 

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28 comments:

  1. बहुत ही विहंगंम नजारो का वृत्तांत ।

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  2. बहुत ही विहंगंम नजारो का वृत्तांत ।

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  3. शानदार वृतांत और फोटोज सारे झक्कास ..

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    1. फ़ोटो की आपसे तारीफ मिली है तो मान लेता हूँ, अच्छे होंगे। :) धन्यवाद नटवर भाई।

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  4. शानदार ! नजारे सचमुच शानदार है। पर जमा हुआ झरना और नाला भी दिखाना था और काली बर्फ भी तो और शानदार होता।

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    1. बुआ इस पोस्ट में वाकई में वो क्वालिटी नहीं है, जो मैं चाहता हूँ। पाठकों का इतना दबाव होता है कि जल्दबाजी में लिख के पोस्ट करना पड़ता है।

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  5. फ़ोटो जबरदस्त हैं।

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  6. बढ़िया बीनू भाई । पर यार जमे हुए झरने का एक फोटो तो बनता था

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    1. वापसी वाले भाग में डाल दूंगा डॉ साहब।

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  7. Beenu -35 degree wala nazara nahi hai ye ?

    Mast pics ..

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    1. जी महेश जी। -35 तो कहीं भी नहीं था। हाँ तापमान बहुत कम था, फिर भी इतना नहीं।

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  8. बीनू , अपने ग्रुप पर वो फोटू डाल ना

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    1. कौन सी बुआ ? झरने वाली वापसी वाले भाग में डाल दूंगा।

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  9. बीनू भई शानदार पोस्ट।दोनों पोस्ट इकठ्ठी पढ़ ली । सच में मजा आ गया। अगली बार जाओ तो जरूर बताना ।

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    1. धन्यवाद नरेश जी। निश्चित रूप से बताकर जाऊंगा।

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  10. बीनू भाई .... | क्वालिटी तो सही आपकी....पर आप दबाब में आकर न्र लिखे ...
    लिखे तो पूरी तन्मन्यता से लिखे..... वो जमे हुए झरने का फोटू तो हमे भी देखना था ...भाई

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  11. जी धन्यवाद रितेश भाई। अगले भाग में वो फ़ोटो जरूर डालूँगा।

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  12. खूबसूरत !! एक एक पल , एक एक कदम खूबसूरत लग रहा है ! बीनू भाई , ब्लॉग पढ़कर जब लगने लगे कि पढ़ने वाला बिलकुल खो जाए तो लिखना सार्थक हो जाता है ! एक एक शब्द पूरी तल्लीनता से पढ़ा और समझ गया कि कैसे जाना है ! बहुत सुन्दर वृतांत

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  13. बीनू भाई....मजा आ गया आपके साथ हर की दूँ यात्रा का ..... फोटो अच्छे लगे , पर फोटो में वो मजा नहीं आ पाया जैसा मैं लेख पढ़ते हुए सोच रहा था ....

    खैर शुभकामनाये आपको

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    1. रितेश भाई अभी फोटोग्राफी में पॉइंट & शूट वाली ही आदत पड़ी हुयी है। :)

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  14. बेहतरीन यात्रा गुरु जी,
    नज़ारे बेहद ही खूबसूरत।
    कभी ठीक बरसात के बाद सितंबर में फिर योजना बनाइये

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    1. निश्चित रूप से, जल्दी ही.....

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  15. Another interesting post. Ye Kalkatti Dhar ke peeche koi kahaani hai kya?

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    1. जी, कहते हैं यहाँ पर कलकत्ता के कोई ट्रैकर थे जो गुजर गए थे, इसलिए इसका नाम कलकत्ती धार पड़ गया। सत्यता कितनी है, मालूम नहीं।

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  16. बहुत ही रोचक जानकारी दी है आपन भैजी। मैं टोंस घाटी में ही पिछ्ले साल बाली पास ट्रैक पर गया था , गंगाड़ गांव का ही एक युवक हमारा गाइड था , स्वयं गढ़वाली होते हुए मैंने उससे गढ़वाली में बात करने की पर वो कुछ ख़ास समझ नहीं पाया ,वैसे ही मैं उनकी भाषा समझ नहीं पाया कुछ शब्दों को छोड़कर ,जब मैंने उससे पूछा क्या आप लोग जौनसारी बोलते हैं तो उसने मना कर दिया और कहा जौनसार से गांव हनोल से शुरू होते हैं। बाद में कुछ खोजबीन की तो पता चला उनकी बोली को पर्वती कहते हैं और वह गढ़वाली से काफी भिन्न है, हालाँकि वहाँ गढ़वाली-जनसारी-हिमाचली सारे गाने सुने जाते है ,विशेषकर हिमाचली गानों/नाटी का अधिक प्रभाव दिखा। मैं जानना चाहता था क्या ओसला गांव वाले स्वयं को जौनसारी कहते हैं ?

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