Friday 25 November 2016

उत्तराखण्ड यात्रा:- जाना था हस्तिनापुर पहुँच गए दुगड्डा

जाना था जापान पहुँच गए चीन : ताड़केश्वर यात्रा (अजीबोगरीब आयोजन और दिल्ली से दुगड्डा)

ऐसे तो पूरे साल कई यात्राएं हो जाती हैं। जिनमें कुछ ऐसी होती हैं कि उनमें ट्रैकिंग बिल्कुल भी नहीं होती। और मेरा ट्रैकिंग के सिवाय कोई भी यात्रा वृतान्त लिखने का मन नहीं करता लेकिन इस वृतान्त को लिख रहा हूँ। क्योंकि अजीबोगरीब कारण हैं। एक दो नहीं कई कारण हैं। पहला तो ये कि यह यात्रा "जाना था जापान पहुँच गए चीन" की तर्ज पर हुई। दूसरा कारण ये है कि इसमें सारे घटनाक्रम अजीबो गरीब ही होते रहे। और तीसरा ये कि अब से उत्तराखण्ड में की जाने वाली सभी यात्राएं ब्लॉग पर प्रकाशित करने की कोशिश रहेगी।



कमल कुमार सिंह "नारद" काफी समय से मेरे पीछे पड़े हुए थे कि, मेरठ के पास हस्तिनापुर घूम आते हैं। पिछले कुछ दिनों में उनकी पीछे पड़ने की संख्या में एकाएक वृद्धि हुई और हर दूसरे दिन कहने लगे कि चल हस्तिनापुर। एक बार पहले भी कार्यक्रम बना था, लेकिन किसी कारणवश जा नहीं पाए। पूरे एक महीने तक जब कमल भाई ने मेरी जान खा ली तो मैंने भी कह ही दिया कि इस शनिवार को चलते हैं। कार्यक्रम कुछ ऐसा सोचा था कि शनिवार सुबह जल्दी दिल्ली से निकलकर रविवार रात तक वापिस आ जाएंगे। 

यात्रा पर निकलने से दो दिन पहले ही मनु प्रकाश त्यागी भाई से व्हाट्स एप्प पर बात हुई तो उन्होंने मुझे मुरादनगर ना आने का ताना दे दिया।  जोश-जोश में मनु भाई को कह दिया कि शुक्रवार रात को मुरादनगर आ रहा हूँ, लेकिन शनिवार को आपको भी मेरे साथ हस्तिनापुर चलना होगा। मनु भाई ने तुरन्त हामी भर दी। अगले ही दिन गजरौला से मित्र शशि चड्ढा से फोन पर बात हो रही थी तो उनको भी हस्तिनापुर जाने की बात बता दी, साथ ही उनको भी मेरठ पहुँचने को कह दिया। 

शुक्रवार रात को मनु भाई के घर मुरादनगर पहुँचना था नहीं गए। अब शनिवार को सुबह-सुबह दिल्ली से निकलकर नौ बजे तक मुरादनगर पहुँच जाएंगे। लेकिन परिस्थितयां कुछ ऐसी बनी कि घर से निकलते-निकलते ही नौ बज गए। कमल भाई को द्वारका मेट्रो स्टेशन पर मिलने को कह दिया था। कमल भाई हमेशा तो समय पर आ जाते हैं, लेकिन आज आने में उन्होंने ने भी नबाबी दिखाई। आनंद विहार पहुँचते हुए 11 बज गए। यहाँ से मेरठ के लिए लगातार बसें मिल जाती हैं। एक बस सामने खड़ी थी, उसका कंडक्टर मेरठ-मेरठ की आवाजें लगा रहा था। तभी कमल भाई को पीछे से दूसरी बस आती दिखी, तुरन्त उसकी ओर दौड़ पड़े और साथ ही मुझे भी दौड़ लगाने को कह दिया। मैंने कमल भाई से कहा सामने जो बस खड़ी थी उसकी सीटों पे कांटे चुभ रखे हैं क्या, जो दौड़ा दौड़ा कर ये बस पकड़वा रहे हो। पक्का इनको इस वाली बस में कोई कन्या बैठी दिख गई। इन कुवारों के साथ यही सबसे बड़ी कमी है। मरता क्या न करता, दौड़कर बस पकड़नी ही पड़ी। मनु भाई को फोन करके बता दिया कि लेट हो रहे हैं, अब घर पर नहीं आएंगे। आप गाडी लेकर हाईवे पर मिलो। 

आनंद विहार से मुरादनगर जाते हुए खूब जाम मिला, पूरा डेढ़ घण्टा लग गया। मनु भाई ने नई गाडी ली है, इतनी नई कि इसपर अभी नंबर प्लेट भी नहीं लगी है। हाइवे पर गाडी में ही इन्तज़ारी करते हुए मिल गए। मनु भाई से भरत मिलाप करके तुरन्त ही तीन तिगाडों की सवारी मेरठ की ओर निकल पड़ी। शशि भाई गजरौला से निकल चुके थे, उनको मेरठ के लाला लाजपत राय मेडिकल कालेज में मिलने को कह दिया। यहाँ पर मेरठ के मित्र कुलभूषण त्यागी एम.बी.बी.एस. की पढाई कर रहे हैं। एक घण्टे में मेरठ पहुँचकर कुलभूषण भाई को फोन किया तो वो मेडिकल कालेज के मुख्य गेट पर हमको लेने पहुँच गए। 

कुलभूशण भाई से यह मेरी पहली मुलाकात थी। बड़े ही सौम्य स्वभाव के व्यक्ति हैं। अक्सर अपने डॉक्टर लोग जैसे होते ही हैं, वैसे ही निकले। कुलभूषण त्यागी यहीं मेडिकल कालेज के छात्रावास में रहते हैं। उन्होंने छात्रावास में चलने का आग्रह किया तो उनके हॉस्टल भी पहुँच गए। शशि भाई को भी वहीँ बुला लिया। पंद्रह मिनट बाद शशि भाई भी गजरौला से बाइक पर पहुँच गए। करीब एक घण्टा गप्पों का दौर चला। अब चूँकि आगे कार से जाना है तो शशि भाई की बाइक को यहीं हॉस्टल में खड़ा करके कुलभूषण भाई से विदा ले ली।

मेरठ से निकले ही थे कि मनु भाई ने अपनी दिल में छुपी इच्छा जाहिर कर दी। उनके अनुसार "हस्तिनापुर घूमने के लिए दो तीन घण्टे काफी हैं, वो मैं कभी भी घुमा दूंगा कहीं और चलते हैं।" कहाँ चलें ? "चलो बुढ़ाना चलते हैं। आजकल नवाजुद्दीन सिद्दीकी भी बुढ़ाना आए हैं, हम एक ही गाँव के हैं तुम सबको उनसे भी मिलवा दूंगा।" फिर बुढ़ाना में किसी को फोन किया गया तो मालूम पड़ा नवाजुद्दीन सिद्दीकी वापिस  मुम्बई चले गए हैं। अब बुढ़ाना भी केंसिल। फिर दूसरी इच्छा प्रकट कर दी "ऐसा करते हैं, उत्तराखण्ड निकलते हैं। आज ताड़केश्वर चलते हैं, कल वहां से रुद्रप्रयाग निकल जाएंगे, कार्तिक स्वामी का छोठा सा ट्रैक है कर आते हैं।" 

चूँकि मैं घर पर धर्मपत्नी को कल रात तक वापिस आने को कह कर आया था, इसलिए पहले तो ना-नुकुर की कोशिश की। कमल भाई और शशि भाई को कोई फर्क नहीं पड़ रहा था कि हस्तिनापुर जाएं, बुढ़ाना जाएं या उत्तराखण्ड जाएं। असमंजस में पड़ने की बारी मेरी थी। आखिर मुझे भी कहना ही पड़ा कि जहाँ मर्जी ले चलो बस कल देर रात तक दिल्ली पहुँचना है। घर से निकलते वक्त अर्धागिनी ने टोका भी था कि आप एक दिन के लिए कह कर जा रहे हो, लेकिन मुझे लग नहीं रहा कि कल तक आओगे। मैंने विश्वास दिलाने के लिए बैग में रखे एक जोड़ी कपड़े भी दिखा दिए थे।अब जब दोस्तों का मन है तो थोडा धर्मपत्नी का गुस्सा ही झेल लूँगा। फ़िलहाल अभी तो मजे करते हैं, यही सोचकर कह ही दिया कि चलो यार चलते हैं ताड़केश्वर। कल नहीं तो परसों तक वापिस आ जाएंगे। 

मनु भाई की जिस नई कार से हम जा रहे थे उस पर नम्बर प्लेट भी नहीं लगी थी। ऐसे में दूसरे राज्य में गाडी लेकर जाने में दिक्कत भी आ सकती थी। चलो अब जो होगा देखा जाएगा। हमको मेरठ से निकलने में ही 3 बज चुके थे। मुझे मालूम था कि आज किसी भी हालत में हम ताड़केश्वर नहीं पहुँच सकते। मेरठ से कोटद्वार ही 180 किलोमीटर है। कोटद्वार तक तो कभी भी पहुंचा सकता है, लेकिन उससे आगे पहाड़ शुरू हो जाते हैं। अँधेरे में गाडी चलानी पड़ती, गाडी भी चल ही लेगी लेकिन उस रुट पर कोई भी बड़ा बाज़ार नहीं है। आधी रात को रुकेंगे कहाँ। मनु भाई की पहाड़ों पर ड्राइविंग का मुझे पूरा विश्वाश है। पहले भी पूरी रात गाडी चलाकर हम दोनों हनोल से ऋषिकेश पहुँच चुके हैं। अब तय कर ही लिया है तो सोचना क्या, ज्यादा ही हुआ तो गाडी में ही रात काट लेंगे।

तो जी "चांडाल चौकड़ी" निकल पड़ी ताड़केश्वर की ओर। 
बिजनोर बैराज पहुँचते हुए पाँच बज गए।  जबरदस्त भूख लग रही थी, बैराज पर ही एक कुल्चे वाला दिखा तो पेट भर कुल्चे खाए गए। नजीबाबाद पहुँचने तक अँधेरा हो गया था। यहाँ पर मुख्य सड़क पर पुल निर्माण कार्य चल रहा है। पिछले ही महीने इधर से गया था तो इसका मुझे मालूम था, इसलिए शहर से कुछ पहले ही दाहिने हाथ को मुड़ गए। पिछली बार यहाँ पुल निर्माण कार्य का मालूम ना होने की वजह से जबरदस्त जाम में फंस गया था। कोटद्वार पहुँचते हुए रात के 9 बज गए थे। फिर भी बिना रुके आगे बढ़ चले। 14 किलोमीटर आगे दुगड्डा पहुँचकर खाना खाने के लिए गाडी रोक दी क्योंकि इससे आगे इस समय कहीं भी कुछ खाने को नहीं मिलेगा।

होटल में खाना खाते हुए होटल वाले से रात को रुकने की बाबत जानकारी ली तो उन्ही के यहाँ पाँच लोगों के लिए कमरा मिल गया। किराया पाँच सौ रूपये।  मनु भाई पूरे एडवेंचर के मूड में थे। उनका कहना था कि रात को ही बिना रुके ताड़केश्वर के लिए चलते हैं। हालाँकि दुगड्डा से ताड़केश्वर की दूरी 55 किलोमीटर के लगभग है। लेकिन इस पूरे रास्ते पर ना तो कोई बड़ा बाज़ार पड़ता है ना ही वाहनों की कोई ख़ास आवाजाही है। ऊपर से ठेठ पहाड़ी रास्ता और जंगल। फिर ताड़केश्वर घने जंगल के बींचोबीच स्थित है। मैंने सभी को बेयर ग्रिल ना बनने की सलाह दी। और चुपचाप यहीं दुगड्डा रुकने को कह दिया। 

आगे बढ़ना सही ना समझकर आज दुगड्डा में ही विश्राम करना तय कर लिया। मेरी तबियत भी कुछ ठीक नहीं लग रही थी। कमल भाई ने यहाँ होटल में अपना माहौल बनाने के लिए कुछ और अजनबी नए दोस्त पकड़ ही लिए थे। उनको उनकी महफ़िल में छोड़ कर हम तीनों कमरे में सोने चले गए।

बिजनोर गंगा बैराज


12 comments:

  1. बहुत अच्छा

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  2. बहुत अच्छा बीनू भाई जी आगे की यात्रा का इंतज़ार रहेगा
    To be continued

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  3. भाई हर यात्रा को लिखते रहो क्योकि हर यात्रा की अपनी ही एक अलग कहानी होती है! मेरा भी उस दिन आने का प्रोग्राम था लकिन आ ना सका! नेक्स्ट पार्ट का इन्तजार रहेगा !

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    1. जरूर कोशिश करूँगा सचिन भाई।

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  4. सुन्दर चित्र रोचक वर्णन

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  5. बीनू भाई यात्रा का बहुत ही अच्छा वर्णन किया

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    1. धन्यवाद लोकेन्द्र भाई।

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  6. चंडाल चौकड़ी की हस्तिनापुर गाथा(वो अलग बात है कि दुगड्डा पहुँच गये )पढने में मज़ा आ रहा है हा हा हा

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    1. जी सोचा कहाँ था और कहां पहुंच गए।

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