Thursday 18 February 2016

अदवाणी यात्रा:- अदवाणी और दिल्ली वापसी

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अदवाणी और दिल्ली वापसी....

करीब 2 बजे अदवानी पहुँचे तो भरत और लम्बू सड़क पर ही इंतज़ार करते मिले। भरत ने रुकने की ब्यवस्था फारेस्ट गेस्ट हाउस में करवा रखी थी। चौकीदार दिन में तो वहां होते हैं, लेकिन रात को वो भी अपने गाँव चले जाते हैं। इसका मतलब आज रात को पूरे गेस्ट हाउस के मालिक हम ही थे। घने जंगल में बसे अदवानी में सिर्फ एक दो घर बने हैं, एक चाय की दुकान और फारेस्ट गेस्ट हाउस है। गेस्ट हाउस भी ठीक सड़क के नीचे ही बना है। बेहद शांत जगह, कोई गाड़ियों का शोर शराबा नहीं, और आस पास बांज-बुरांश का बेहद घना जंगल। 


जब तक डोभाल पहुँचता है, सोचा चाय की दुकान वाले से पूछ लेते हैं कि हमारे लिए खाना बना देगा क्या ? राशन तो हम साथ लेकर आये ही थे, लेकिन दुकान वाले को कहीं रिस्तेदारी में जाना था, उसने मना कर दिया। इस चाय की दुकान पर एक जंगली सब्जी दिखी, स्थानीय भाषा में इसको "लिंगुड" कहते हैं, ये भी खरीद ली। ये जो सब्जी थी इसको बोते नहीं है, बल्कि ये जंगलों में खुद ही इस सीजन में उग जाती है। और स्वाद के तो कहने ही क्या, लाजबाब। गेस्ट हाउस के चौकीदार ने कहा कि गेस्ट हाउस में बर्तन वगैरह सब कुछ रखे हैं, और आप लोगों के पास राशन है ही, तो अभी दिन का भोजन वो बना देंगे, रात का आप लोग खुद ही बना लेना। उन्होंने गेस्ट हाउस का किचन दिखाया तो वहां सभी कुछ पड़ा था। इससे ज्यादा और क्या चाहिए था हमें। 

उनको राशन देकर हम गेस्ट हाउस के आँगन में बैठे ही थे कि तब तक डोभाल भी पहुँच गया। डोभाल के साथ उसके एक मित्र हरीश उनियाल भी आये थे। उनियाल जी से परिचय हुआ, तो मालूम पड़ा उन्होंने हम सबके बारे में डोभाल से पहले ही पता कर लिया था कि कौन कौन मटन खा लेता है, और कौन नहीं। सिर्फ लम्बू को छोड़कर सभी खा लेते थे, तो उनियाल जी ने पौड़ी से तीन किलो मटन ले लिया। कुछ देर बातें करने के बाद अदवानी के जंगल को देखने निकल पड़े, तब तक दिन का भोजन भी तैयार हो जाएगा। वैसे तो ये घना जंगल कई किलोमीटर के क्षेत्रफल में फैला हुआ है, और ये यात्रा ट्रैकिंग यात्रा तो थी नहीं, लेकिन हम जैसे लोग कोई भी मौका छोड़ते कहाँ हैं। 

गेस्ट हाउस से ठीक ऊपर एक तिराहा है, एक सड़क डांडा नागराजा मन्दिर और आगे बहेड़ाखाल के लिए निकल जाती है, दाहिने हाथ वाली पौड़ी की और जाती है। हम डांडा नागराजा वाली सड़क पर पैदल ही निकल पड़े। बहुत ही घने जंगल के बीच से ये सड़क गुजरती है, मौसम शानदार बना हुआ था, हमारे चारों और कोहरा भी छाने लगा। आधा किलोमीटर आगे जाने के बाद, सड़क छोड़कर जंगल के अन्दर घुस गए। इतने घने जंगल में जमीन पर धूप कभी क्या ही पड़ती होगी। अकेले तो इसके अन्दर घुसने की सोच भी नहीं सकते, वो तो हम पांच थे इसलिए हिम्मत भी कर ली। बांज और बुरांश का जबरदस्त जंगल है। कुछ आगे जाने के बाद वापिस सड़क पर उतर गए। 

इस सड़क पर ट्रैफिक बिल्कुल भी नहीं होता, पूरे दिन में एक्का दुक्का वाहन ही यहाँ से गुजरते होंगे। हम भी सड़क के बीचों बीच बैठ कर आराम करने लगे। कुछ देर आराम करने के बाद वापिस गेस्ट हाउस की तरफ चल पड़े, भूख भी लगने लगी थी। करीब आधे घण्टे बाद दिन का भोजन तैयार हो चुका था, अरहर की दाल, चावल और वहाँ की लोकल सब्जी। वैसे लकड़ियों में पके खाने का स्वाद तो बढ़िया होता ही है। भोजन के बाद आस-पास का क्षेत्र देखने की लालसा फिर जाग उठी, तो कांसखेत की ओर कार लेकर घूमने निकल पड़े, उनियाल जी पौड़ी ही रहते हैं, उनका इधर आना जाना काफी होता है। उन्होंने स्वेच्छा से अपनी ड्यूटी रात का भोजन तैयार करने में लगा दी। एक गाडी लेकर हम पाँचों निकल पड़े, घने जंगल में सुनसान सड़क पर गाडी से घूमने का भी अलग ही आनंद है। 

खूब मौज-मस्ती करते हुए शाम कब हो गयी, मालूम ही नहीं पड़ा। घूमने के बाद वापिस गेस्ट हाउस आ गए। उनियाल जी मटन बनाने में ब्यस्त थे। उनको मदद करने के लिए पुछा तो उन्होंने कहा, उनको मजा आता है खाना बनाने में। खाना खाने के बाद आज की रात गप्पों का दौर चलना था, जिसकी जब तक नींद पर बस था, गप्पें मारता रहा। समय सही से तो याद नहीं, लेकिन लगभग सुबह के तीन बजे तक तो मैं भी गप्पें मार ही रहा था। सुबह सात बजे आँख खुली तो उनियाल जी पूरी केतली भर के ब्लैक टी बना चुके थे। 

गेस्ट हाउस के बरामदे में नीचे ही बैठ गए, गुनगुनी धूप में चाय का आनन्द लिया गया। चाय के बाद भरत के लाये पांच किलो आम एक बाल्टी में भिगोकर सभी उन पर टूट पड़े। आज दोपहर को हमको वापिस निकलना था तो दिन के भोजन की तैयारी भी शुरू कर दी। करीब बारह बजे भोजन करके सभी पौड़ी की और निकल पड़े। अदवानी से पौड़ी बीस किलोमीटर की दुरी पर है। इस बीस किलोमीटर में एक से बढ़कर एक नज़ारे देखने को मिलते हैं। प्रसिद्द गंगवाड़स्यूं घाटी का विहंगम दृश्य देखकर तो आह ही निकल जाती है। सड़क भी शानदार बनी हो तो प्राकृतिक नज़ारे देखते हुए चलने का आनन्द दो गुना बढ़ जाता है। स्थानीय प्रसाशन भी अब इस क्षेत्र को बढ़ावा देने लगा है, ऐसे कुछ आसार देखने को मिले। क्योंकि पर्यटकों के लिए कई अच्छी लोकेशन पर बैठ कर आनंद लेने के लिए लोहे की कुर्सियां लगी दिखी। 

हम भी जगह जगह रूककर इन खूबसूरत नजारों को देखते हुए आगे बढ़ रहे थे। करीब दो बजे कंडोलिया पहुंचे तो यहाँ का प्रसिद्द रांसी स्टेडियम देखने भी गए। पहाड़ की ठीक चोटी पर ये स्टेडियम बना है। वैसे कंडोलिया शुरू से ही एक पिकनिक स्पॉट के रूप में प्रसिद्ध रहा है, खूबसूरत तो है ही। आप सभी अगर कभी पौड़ी से गुजरें तो कंडोलिया देखते हुए जरूर निकलें। अब एक-एक कर बिछड़ने का समय नजदीक आ गया था, डोभाल को श्रीनगर जाना था और हमको देवप्रयाग होते हुए वापिस दिल्ली। पौड़ी से देवप्रयाग सीधी सड़क घुड़दौडी होकर निकलती है। हमको भी उसी से निकलना था। जब भी हम सभी दोस्त मिलते हैं तो ये बिछड़ने वाला समय बड़ा ही भावुक छण होता है। आंसू भी निकल पड़ते हैं। 

डोभाल और उनियाल जी से विदा लेकर हम चार देवप्रयाग की और निकल पड़े। इस सड़क पर मैं भी पहली बार चल रहा था। बेहद शानदार सड़क बनी है। घुड़दौडि इंजीनिरिंग कॉलेज होते हुए देवप्रयाग पहुँच गए, यहाँ बिना रुके ही ऋषिकेश की और बढ़ चले। कौड्याला में रुक कर चाय पी, कुछ देर गंगा किनारे पर जाकर माँ गंगा की चरण वन्दना करने के बाद आगे बढ़ चले। ऋषिकेश से भरत ने देहरादून के लिए निकलना था और लम्बू का निवास स्थान यहीं पर है। दोनों से विदा लेकर यशवंत और मैं वापिस दिल्ली की और निकल पड़े।

अदवानी
गंगवाड़स्यूं घाटी
गंगवाड़स्यूं घाटी

गंगवाड़स्यूं घाटी

गंगवाड़स्यूं घाटी

गंगवाड़स्यूं घाटी
अदवानी का घना जंगल


रात के भोजन की तैयारी

गंगवाड़स्यूं घाटी

गंगवाड़स्यूं घाटी

डाइनिंग रूम

बीच सड़क पर




डांडा नागराजा की और जाती सड़क

दिल्ली वापसी 

पौड़ी की तरफ  

कोड़याला ऋषिकेश
कोड़याला ऋषिकेश



9 comments:

  1. शानदार यात्रा वृतांत बीनू भाई ! फोटो बहुत शानदार लगे ! अदवानी यात्रा का आपके साथ पूरा लुत्फ़ लिया !!

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  2. फिर से एक बेहतरीन यात्रा वृत्तांत,फ़ोटो मस्त है,कुछ कुछ जगह देखी हुयी सी लग रही हैं

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  3. अदवानी बहुत सुंदर जगह लगी |फोटो भी एक से बढ़कर एक |खूबसूरत उत्तराखंड |


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  4. as usual beautiful post with beautiful pictures.

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  5. बहुत सुंदर, कुकरेती। शायद नाहसैण बगानीखाल के पास है यह जगह। अशोक बिष्ट का गांव भी आसपास ही है। डोभाल गुरुजी भी शायद इसके आसपास के स्कूल से ही, ट्रांसफर हो के आते थे।

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